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वन अधिकार रक्षकों के पक्ष में आया अलाहाबाद हाईकोर्ट का फ़ैसला आदेश है कि किसी दावेदार को न झेलनी पड़े परेशानी

22, Oct 2018 | Preksha Malu

वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत दावों को दर्ज करने वाले वन श्रमिकों और आदिवासियों के लिए हाईकोर्ट का ये आदेश एक बड़ी जीत की तरह है. अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले में न केवल वन अधिकारों को मान्यता दी है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करने का आदेश दिया है कि दावेदारों के साथ बरती जा रहीं उत्पीड़क घटनाएं तुरन्त समाप्त की जाएं.

इस साल की शुरुआत में स्वराज अभियान समिति ने पाया था कि सोनभद्र क्षेत्र में आदिवासियों द्वारा दायर वन अधिकारों के तहत 90 प्रतिशत दावे के आवेदन, किसी भी नोटिस या सुनवाई के बिना खारिज कर दिए गए थे. कई गांवों में तो दावे के आवेदन स्वीकार ही नहीं किए गए थे. साथ ही, वन विभाग वन भूमि से दावेदारों को बेदखल कर रहा था. लेकिन 11 अक्टूबर को, अलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पूरे देश में वन अधिकार रक्षकों के और दावेदारों के पक्ष में एक आदेश पारित किया.

वे आदिवासी मानव अधिकार कार्यकर्ता जो अपने जंगलों की हिफाज़त के लिए लड़ते हैं जिनपर उनका ही अधिकार है, उन्हें झूठे मामलों में फंसाया जा रहा है, केवल इसलिए क्योंकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं. सीजेपी ऐसे लोगों की हिफाज़त के लिए काम कर रहा है. हम वन अधिकारों के संघर्ष में उनके साथ खड़े हैं.  हमारे अभियान का समर्थन करने के लिए, कृपया यहां उदारता से दान करें.

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि “सभी याचिकाकर्ताओं के लिए आज से अगले 6 हफ़्तों तक ये सुविधा जारी की जाती है कि वे इस अधीनियम की धरा 6 के तहत वन अधिकारों की मान्यता प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत आवेदन प्रस्तुत कर सकते हैं. यदि ऐसे आवेदन किए जाते हैं, तो ग्राम सभा / प्राधिकारी इस पर विचार करेंगे और यथासंभव शीघ्रता से, अधिमानतः 12 सप्ताह की अवधि के भीतर, निर्णय लेकर उसपर अपना फ़ैसला सुनाएंगे.”

आदेश में कहा गया है कि ये प्रक्रिया 18 हफ्तों से ज़्यादा नहीं चलनी चाहिए, ताकि दावेदारों को इससे अधिक की अवधि तक परेशानी न झेलनी पड़े. उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, अधिनियम के प्रावधानों के तहत ग्राम सभा या प्राधिकरण को 12 सप्ताह के भीतर अपने आवेदनों पर विचार करना और निर्णय लेना होगा.

आदिवासी वानवासी महासभा द्वारा दायर पीआईएल पर न्यायमूर्ति दिलीप बी भोसले और यशवंत वर्मा ने यह आदेश पारित किया है.

राज्य स्वराज अभियान समिति के सदस्य श्री दिनकर कपूर ने बताया कि पिछले साल एक टीम ने इस क्षेत्र का दौरा किया था, उन्होंने पाया कि इस जनजातीय बेल्ट में आदिवासियों द्वारा दायर वन अधिकारों के तहत 90 प्रतिशत आवेदनों को बिना किसी नोटिस दिए और उनपर बिना कोई सुनवाई किए ही खारिज कर दिया गया था. कई गांवों में तो दावे स्वीकार ही नहीं किए गए थे. साथ ही वन विभाग वन भूमि से दावेदारों को बेदखल कर रहा था. इस क्षेत्र की यात्रा के बाद, आदिवासी वानवासी महासाभा द्वारा इस फैक्ट फ़ाइन्डिंग पर रिपोर्ट तैयार की गई, और उसे आधार बनाकर उच्च न्यायालय में एक पीआईएल दायर की गई. इस याचिका की पहली सुनवाई पर उच्च न्यायालय ने अधिकारियों द्वारा दावेदारों को उनकी ज़मीन से हटाने के लिए की जा रही उत्पीड़क कार्यवाही पर रोक लगाने का आदेश दिया था.

उच्च न्यायालय ने इस पूरी प्रक्रिया को वन अधिकार अधिनियम के समस्त प्रावधानों को ध्यान में रख कर पुनः प्रारम्भ करने का आदेश दिया है. आदालत का पूरा आदेश यहां पढ़ा जा सकता है.

 

अनुवाद सौजन्य – अनुज श्रीवास्तव

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