राज्य प्रायोजित नफ़रती प्रोजेक्ट : दिल्ली दंगा 2020 घटना के बारे में अभी भी आधा दर्जन रिपोर्ट पर पूछताछ बाकी है
11, Oct 2021 | तीस्ता सेतलवाड़
दिल्ली ने फरवरी 2020 में 22 तारीख़ से 28 तारीख़ के बीच जो तबाही का मंजर देखा उसकी भावनात्मक यादें डेजा वू (एक ऐसी स्थिति जिसमें पहले से ही घटना का अनुमान लगा लेना) के डरावने साये की तरह हमेशा बनी रहेंगी। इसे डरावना इसलिए कहा गया क्योंकि यह राज्य आधारित सनक और नफ़रत से भरा हुआ एक लक्षित हिंसा और उन्माद का तरीका था। इस तरह के डेजा वू को अब आमबात मानकर स्वीकार कर लिया गया है। क्योंकि इस तरह की शर्मसार करने वाली घटनाएँ थोड़ी कम बेशर्मी से पहले भी कई बार देखी जा चुकी हैं। अब इस तबाही को हुए एक साल हो चुके हैं। लेकिन घटना के बारे में अभी भी आधा दर्जन रिपोर्ट पर पूछताछ बाकी है (यह बात ध्यान देने वाली है कि इसे सीपीआई (एम) की दिल्ली राज्य इकाई के द्वारा सामने लाया गया है)। समाज और राज्य दोनों ही संरचनाओं के अंदर के खालीपन को ठीक होने या उसके मौलिक सिद्धांतों को फिर से हासिल करने के लिए अतिमानवीय (superhuman) होने की जरूरत है। भव्य संस्थागत ढांचे की तरह ही भारतीय लोकतंत्र भी पूरी तरह से खोखला होने के कगार पर है।
राज्य के प्रोजेक्ट के रूप में गढ़ी गयी नफ़रत की घटनाओं को भारत बहुत बारीकी से देख रहा है। हमारे देश में इसे सबसे हाशिए पर रहने वाली आबादी के ख़िलाफ़ बेरहमी के साथ फैलाया गया है। जाहिर सी बात है इस प्रोजेक्ट को मजबूती देने के लिए धार्मिक अल्पसंख्यक, महिलाएं, दलित और कम्युनिस्टों को इस शातिर हिंसा के सबसे प्रत्यक्ष और स्पष्ट लक्ष्य के रूप में शिकार बनाया गया। इसके अंतिम लक्ष्य के बतौर भारतीय संविधान की जो परिकल्पना की गई है उसे बदला जा रहा है। इतना ही नहीं बल्कि गैर बराबरी पर आधारित जातिगत व्यवस्था को भी सामाजिक और राज्य संरचना में वापस लाने की भी परिकल्पना की गई है। जो किसी भी तरह की स्वायत्तता या स्वतंत्रता को अपना दुश्मन मानता है।[1] खासतौर से 1980 के दशक के बाद से यह भी साफ़ तौर देखा जा सकता है कि किस तरह से यह राजनीतिक प्रोजेक्ट इतनी आसानी के साथ आर्थिक और उपनिवेशीकरण के नए व और भी ज़्यादा शातिर रूप में आम और सार्वजनिक संसाधनों को ध्वस्त कर रहा है और उसे एकाधिकार पूंजी को सुपुर्द कर रहा है।
आज से कुछ दशक पहले से ही हम लोग नफ़रत के राजनीतिक हथियार के साये में जीने लगे हैं। क्योंकि हम भारत के लोगों के बीच शातिर धार्मिक आधार पर बंटवारे का बीज शाखा और पार्टी के द्वारा बोया जाता रहा है। इस कारनामे को अंजाम देने के लिए अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया गया। जैसे कि नन्हे बच्चों को कथा-कहानियां सुनाना, तर्क या बारीकियों को छुपाकर इतिहास को पेश किया जाना। मर्दवाद और जाति गौरव की मिसाल को स्थापित किया जाना। ताकि इन सभी तरीकों का इस्तेमाल करके एक ऐसा कैडर (कार्यकर्ता) समूह तैयार किया जाये जिनकी विकृत जीवन शैली हर कीमत पर एक ऐसे इरादे के चारों ओर घूमती हो जिसका मकसद सैन्यीकृत लोकतांत्रिक राज्य को बढ़ावा देना था। यह प्रोजेक्ट आज का नहीं है बल्कि लगभग सौ साल पुराना है।
उन महात्मा गाँधी को जिन्हें नफ़रत के कारण 30 जनवरी,1948 को गोलियों से मार दिया गया था। उन्हें आज भी समानता, बगैर भेदभाव, बातचीत और संवाद (हाँ, धर्मनिरपेक्षता!) पर मजबूती के साथ खड़े होने के लिए ‘गद्दार’ माना जाता है। गाँधी की हत्या के पहले भी उन पर पाँच बार इस तरह का जानलेवा हमला किया जा चुका था। इस कड़ी की पहली घटना जनवरी 1934 में हुई थी।[2] हमने जबलपुर और रांची में क्रमशः 1961 और 1969 में हुई पहली बार लक्षित हिंसा के दौरान मुसलमानों के लिए ‘मुसलमानों का एक ही स्थान, पाकिस्तान और कब्रिस्तान’ जैसे नारों को सुना था। लेकिन देश पर ज़ालिम राज सत्ता के काबिज़ होने के बाद ‘देश के गद्दारों को, गोली मारो सालो को’ का नारा और भी मजबूती के साथ आया है। 27 जनवरी 2020 को अनुराग ठाकुर[3] (जो कि भारत सरकार की कैबिनेट में मंत्री थे) के द्वारा दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान एक चुनावी रैली में इस तरह का उत्तेजक (उकसाने वाला) नारा दिया गया था। परन्तु उन्हें चुनाव आयोग के द्वारा सिवाय 72 घंटे चुनावी अभियान में शामिल होने से के अलावा उन पर और किसी भी तरह की दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गयी। यह घटना किसी भी तरह से महत्वहीन नहीं है। अनुराग ठाकुर के नफ़रत से भरे भाषण में सिर्फ उन चुनिंदा लोगों, मुसलमान औरतों और युवाओं का ज़िक्र ही था, जो एक असंवैधानिक कानून के ख़िलाफ़ चल रहे प्रेरणादायक विरोध प्रदर्शन(सीएए-एनआरसी) का नेतृत्व कर रहे थे।
आज एक वर्चस्ववादी विचारधारा काम कर रही है जिसका राजनीतिक क्षेत्र में पूरी तरह कब्ज़ा है। इसका प्रभाव मोदी सरकार पार्ट 2 में कार्यरत उन वरिष्ठ निर्वाचित अधिकारियों में बहुत साफ़ दिखाई देता है, जिन्हें बेहद क्रूरता के साथ मुंह-ज़बानी खून की होली खेलते देखा जा सकता है और उन्हें इसका दोषी पाया गया हैं। 2014 में अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत होते ही जिस तरह से इस शासन के पदाधिकारियों, महिला और पुरुष मंत्रियों, गृहमंत्री, कुछ मुख्यमंत्रियों और यहाँ तक कि प्रधानमंत्री ने भी जिस तरह से लक्षित नफ़रत की अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया है वह उनके घटिया स्तर की विशेषता को बयान करती है। शीर्ष पर बैठे नेताओं से इस तरह के बयानों और संदेशों ने सत्तारूढ़ दल के सबसे छोटे स्तर के राजनीतिक कार्यकर्ताओं, पार्टी के विधायकों और नगर सेवकों को स्थायी तौर पर ग्रीन सिग्नल दे दिया है। इस ज़हर का इस्तेमाल लगातार राजनीतिक तौर पर लामबंदी के हथियार के रूप में किया जाता है ताकि आस-पड़ोस को आपस में जोड़ने वाले संबंधों को नफ़रतों के जरिए तोड़ा जा सके। ऐसे में अपराधियों के पीछे लामबंद राजसत्ता उन्हें संरक्षण देकर उनको ताक़त देने का काम करती है। हमने पिछले साल दिल्ली में सीएए, एनपीआर और एनआरसी विरोध के दौरान देखा कि एक विचारधारा के रूप में इनके पास देने के लिए बहुत कम है। लेकिन सर्वोच्चता और वर्चस्ववादी बंटवारे के जरिये महीनों से चले आ रहे इस लोकतांत्रिक उत्सव का उन्होंने बेशर्मी से दमन किया और लोगों को कैद में डाल दिया। बारह महीने हो चुके हैं, अभी अगर हजारों न भी कहा जाये तो सैकड़ों की संख्या में लोग जेल की सलाखों के पीछे हैं। क्या यह अजीब नहीं है कि उस समय भारत से दो किस्म की कहानियां एक साथ दिखाई दे रही थीं और आज भी आ रही हैं? एक कहानी सत्ता द्वारा नफ़रत के रूप में और दूसरी लोकतंत्र से प्यार के रूप में। आज विरोध के तौर पर लोगों के बड़े हिस्से से आवाज़ उठ रही है।
नफ़रत की साजिश से घात लगाकर फैलाई गई नफ़रत की हिंसा से हफ्तों पहले ही दिल्ली एक स्तब्ध ख़ामोशी[4] में तब्दील हो चुकी थी। जिसके जवाब में दिल्ली और भारत की सड़कों पर विरोध और विद्रोह के गीतों की गूंज सुनाई दी थी। शाहीन बाग़ एक ऐसी मिसाल थी जिसने कई दूसरे लोगों को प्रेरित किया था। उसके अलावा जाफराबाद, मुस्तफाबाद, कर्दमपुरी चौक, चांद बाग, श्रीराम कॉलोनी, खजूरी खास, नूर-ए-इलाही घोंडा और बब-उल-उलूम, सीलमपुर जैसे उत्तर पूर्वी दिल्ली में आठ ऐसी जगह थी जहाँ पर औरतों के नेतृत्व में सीएए के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन हुए थे। मुसलमान औरतों के साथ दूसरी महिलाओं ने भी भारतीय नागरिकता और राष्ट्रीयता का दावा करने में अपने समुदाय का नेतृत्व किया था। 15 दिसंबर, 2020 को जब मुखर राजनीतिक कार्यवाही को अंजाम देने के लिए जुटी क्रूर पुलिस ने जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों पर हमला किया और उन्हें अपंग किया तो इसके जवाब में सभी समुदाय और उम्र की औरतें जिद पर अड़ गयीं और उन्होंने देश भर में हजारों-हज़ार लोगों को प्रेरित किया। जिस तरह से अंकुरित पौधे के बगीचे अपने नाम पद्धति (नोमेनकलेटर) के अनुसार तेज़ी से बढ़ते है, ठीक उसी तरह से जहाँ-तहाँ धरना/बैठक शुरू होने लगी। ये जगहें भी विरोध प्रदर्शनों के बगीचे बनते चले गए![5] दशकों से राज्य, समाज और उनके खुद के समुदाय द्वारा हाशिए पर धकेले गए प्रतीक इन सभी जगहों पर मुखर होकर अफ़साने और धर्मनिरपेक्ष तौर पर दिखाई दे रहे थे। अगर इन विरोध प्रदर्शनों में भगत सिंह, सावित्रीबाई फुले और आज़ाद के पोस्टर दिखाई पड़े तो साथ ही भारत के तिरंगे के प्रतीकात्मक श्रेष्ठता दावों को भी निडरता से बयां किया गया। ‘सुन ले मोदी, हम लड़के लेंगे आज़ादी’, जैसे नारे को मूल कश्मीरी लहज़े से बदला गया और नया रूप दिया गया। बिना किसी शक शुबहा के इस आज़ादी के नारे को जवाहरलाल नेहरू छात्र संघ (जेएनयूएसयू) के तत्कालीन अध्यक्ष, कन्हैया कुमार ने 4 मार्च, 2016 को अपनी एक महीने बाद हुई रिहाई के दिन इसे लोकप्रिय बना दिया था। उसके बाद यह नारा 2019 के दिसंबर में और उसके बाद, नफ़रत-हिंसा से आज़ादी, जातिवाद से आज़ादी, और मनुवाद से आज़ादी, पूंजीवादी से आज़ादी के रूप में गूंज उठा। हबीब जालिब का दस्तूर और फैज़ अहमद फ़ैज़ की हम देखेंगे का उर्दू तर्जुमा देश के सभी हिस्सों में गूंजने लगा था। यह एक ऐसी भाषा है जो प्रतीकात्मक रूप से शायद किसी भी दूसरी भाषा से बेहतर हमें विद्रोह से जोड़ती है।
जिस भारत के संविधान को संसद के अंदर अहिस्ता-अहिस्ता ध्वस्त किया गया था। उसी संविधान को लेकर भारत के लोगों द्वारा सड़कों पर उतर कर फिर से उन मूल्यों का और उस किताब का दावा किया गया। इसमें से ज़्यादातर हाशिये पर मौजूद अल्पसंख्यक समुदाय के लोग थे। परन्तु पहले नफ़रत की गोलियों से और फिर कोविड-19 महामारी के नाम पर सोच-समझकर थोपे गए ‘लॉकडाउन’ के जरिए सरकार और दिल्ली पुलिस ने परिस्थिति के नाम पर लोगों को जबरन चार दीवारों के भीतर कैद कर दिया ताकि इन लोकतांत्रिक प्रकोपों को खामोश किया जा सके।
मुस्लिम समुदाय को आंदोलित करने वाला सीएए, प्रस्तावित राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) ऐसे मुद्दे थे और हैं जिनका अस्तित्व में आना सीधे तौर पर उनके के लिए खतरा है।[6] 9 दिसंबर, 2019 को पेश किये गए सीएए-2019 को असंवैधानिक संशोधनों के साथ तथा बिना किसी विचार-विमर्श और बहस के आधी रात में पारित कर दिया गया। बिना किसी शक के यह कहा जा सकता है कि सरकार देश भर में अपने इस क़दम के ख़िलाफ़ खड़े हुए मजबूत प्रतिरोध से स्तब्ध थी। मुंबई, जो अपने शानदार अतीत के बावजूद प्रतिक्रिया देने में सामान्य रूप से धीमी रही, परन्तु वहाँ के प्रतिष्ठित अगस्त क्रांति मैदान में भी 19 दिसंबर को 30,000 से अधिक प्रदर्शनकारियों का ऐतिहासिक मूक प्रदर्शन हुआ था।
असम में राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर (NRC) की गणना के घटनाक्रम से आगाह करते हुए कुछ लोगों ने पूरी तरह अनुचित संशोधन और घोषित नीति (सीएए-एनपीआर-एनआरसी) का आसान बचाव भी किया। जो कि सत्ता का उत्पीड़क त्रिशूल या ट्रोइका बन गया था और आज भी इसका प्रतीक है। इस तरह का नफ़रती आतंक और धमकी,[7] एक तरफ से ‘बहुसंख्यक’ आबादी के एक खास वर्ग को आकर्षित करता है। वहीं दूसरी तरफ अल्पसंख्यक समुदाय को मजबूती के साथ अलग-थलग और असुरक्षित बनाता है। ऐसा ही कुछ भारतीय जनता पार्टी के 2014 के चुनावी घोषणा पत्र में घोषित होने बाद तय हो गया था। यह तय था कि नागरिक अधिनियम 1955 में जल्द ही कोई बदलाव होने जा रहा है। फरवरी 2020 के बाद से भारत की राज्य व्यवस्था ने लक्षित और विरोध करने वाले समुदाय को निशाना बनाया है। ऐसे लोगों को झूठे इल्जाम और आरोप लगाकर एक ख़तरनाक और शरारती साजिशकर्ता के रूप में पेश किया जाता रहा है। युवा औरतें और आदमी जिन्होंने न सिर्फ सीएए-2019, एनपीआर, एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन ही किया था बल्कि घटित हिंसा के बाद दिलो-जान से दर्द और मौत को गले लगाया, ऐसे युवाओं की हत्या करने से पहले बेरहमी से पीटा गया और प्रताड़ित किया गया। गुजरात के बाद 2020 में इसे और भी ज़्यादा जाँच-परख और दांव-पेंच के साथ लागू किया गया। 2020 सत्ताधारियों के द्वारा पूरी तरह से क्रूरता करने के लिए याद रखा जायेगा।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि जहाँ एक तरफ शाहीन बाग़ 2019-2020 में देश के स्तर पर प्रदर्शनकारियों की कल्पना का केंद्र बन गया था, वहीं इसी के साथ सर्वोच्चयवादी दक्षिणपंथी, जिसमें दिल्ली की सत्तासीन पार्टी भी शामिल है ने नफ़रत फैलाने का काम किया।[8]
केंद्र में शासन कर रही सरकार के द्वारा विरोध प्रदर्शनों को ख़त्म करने और प्रदर्शनकारियों को बदनाम करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी गयी। उत्तर पूर्वी दिल्ली में राज्य प्रायोजित हिंसा से 22 दिन पहले, 1 फरवरी, 2020 को शाहीन बाग के पास कथित तौर पर दो बार गोलियां चलाने वाले शार्पशूटर, कपिल गुर्जर ने हमला करते हुए बेशर्मी से दावा किया था, “सिर्फ हिंदुओं का राज चलेगा।” हालाँकि दिल्ली पुलिस ने तुरंत इस घटना के बाद उसे गिरफ्तार कर लिया था। पुलिस ने वारदात वाली जगह से चलायी गयी गोली के दो खाली खोखे भी बरामद किए थे और पुलिस ने यह भी कहा था कि यह एक सोची समझी घटना थी। परन्तु उसे बहुत आसानी से जमानत मिल गयी। इतना ही नहीं हुआ बल्कि नौ महीने बाद, 30 दिसम्बर, 2020 को वह भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में आधिकारिक रूप से स्वागत की तैयारी में था। सोशल मीडिया पर चले हो-हल्ले के कारण इस निर्णय को स्थगित कर गया।[9]
भारतीय संविधान के द्वारा भारत के लोगों के जिस जिंदगी और वजूद की कल्पना की गयी और गढ़ा गया था, उसमें वास्तविकता में विवाद के अलावा और कुछ भी नहीं रह गया है। भारतीय कौन है, क्या इसे भारतीय संविधान तय करेगा?[10] नफ़रत को लेकर जिस तरह से राज्य ने प्रोजेक्ट किया है वह सब कुछ भारत के लोगों के एक बड़े हिस्से को अमानवीय और ओझल बनाने की तैयारी है। अल्पसंख्यक जमात के तौर पर भारत का मुसलमान एक बड़ा वर्ग है और वह नफ़रत की पहली पसंद भी है। उसे ख़त्म करने के लिए राज्य नफ़रत की सभी हदों से गुजर कर बेहरमी से पेश आता है। हालांकि इस नफ़रत ने उत्तर-पूर्वी दिल्ली के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी की चुनावी जीत को प्रभावित किया। भाजपा के नफ़रत फैलाने वाले ब्रिगेड के जहीरले नफ़रत से भरे भाषणों के कारण उन्हें तीन सीटों का नुकसान उठाना पड़ा। हालाँकि इसके बावजूद भी आम आदमी पार्टी ने शानदार तरीके से चुनाव जीत कर सत्ता हासिल कर ली। चुनाव का परिणाम 11 फरवरी, 2020 को घोषित किया गया था। इस नतीजे से असंतुष्ट या यूँ कहा जाये कि हार की निराशा ने और भी खून-ख़राबे को पनपाया। इस बार 22 फरवरी, 2020[11] को कपिल मिश्रा (पूर्व विधायक)[12] और रागिनी तिवारी[13] के द्वारा इस हिंसा को अंजाम दिया गया। दिल्ली नरसंहार के एक साल पूरे होने के अवसर पर, कपिल मिश्रा (जो कानून के कानून से बच गया है), ने इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार अहंकार से दंभ भरा कि “आज एक साल हो गया है, इसलिए ये बात दोबारा बोलना चाहता हूं … पिछले साल 23 फरवरी को जो किया था, अगर जरूरत पड़ी तो दोबारा करूँगा।
भारतीय राज्य का बदलता चेहरा अब पूरी तरह से दिखाई दे रहा है। हममें से वे जो 2002 के गुजरात नरसंहार के चश्मदीद गवाह थे, उन लोगों को 2020 के कारनामे से सरकार की उदासीनता के कारणों को समझने का और भी बेहतर मौका मिला। इत्तेफ़ाक से 2020 के दिल्ली कत्लेआम में मारे गए लोगों की संख्या कम थी, लेकिन कई मायनों में राज्य के द्वारा संवैधानिक कर्तव्य का परित्याग पहले से बदतर था।
इस लक्षित सांप्रदायिक हिंसा के मूल मंत्र को समझने के लिए कि ‘किसने इसकी शुरुआत की’ मैंने जाँच का पैरामीटर तैयार किया है। लक्षित हिंसा की उत्पत्ति शायद ही कभी भी भौतिक घटना या इसके सबूत से शुरू होती है।
दरअसल इसकी शुरुआत होने से हफ़्तों और महीनों पहले ही सार्वजनिक तौर पर पूरी तरह से नफ़रती माहौल को तैयार करने के लिए अख़बारों व पर्चों में नफ़रतके लेखन को परोसा गया और लोगों को उकसाने के लिए नफ़रती भाषणों का सहारा लिया गया। अफ़सोस कि कानून होने के बावजूद भी पुलिस प्रशासन के द्वारा कोई कार्यवाही नहीं हुई।[14]
यहाँ तक कि शीर्ष न्याय व्यवस्था भी इस घातक प्रवृति (भड़काऊ भाषण पर किसी भी तरह का स्वत: संज्ञान कार्रवाई और कोई मजबूत तर्क नहीं होना) को अचंभित रूप से पकड़ने में नाकामयाब रहा है। अतः इस संस्था के आत्मसंतोष (बहुसंख्यकवाद से भी प्रभावित हो सकता सकता है) के कारण दूसरे लोगों की सार्वजनिक स्वीकृति बढ़ी है। सर्वोच्चतावादी दक्षिणपंथी द्वारा भारतीय राजनीति पर अपनी पकड़ को मजबूत करने के लिए 1990 में एल.के. अडवाणी के द्वारा शुरू की गयी रथ यात्रा ही एक मात्र सबसे मजबूत कार्यवाही थी।[15] इस प्रवृत्ति ने ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’, ‘छद्म-धर्मनिरपेक्षता’ और इसी तरह के शब्दों को वैधता प्रदान की। जैसे-जैसे रथ यात्रा की योजना को अमली-जामा पहनाया जाने लगा, वैसे-वैसे ही नफ़रत हवा में फैलने लगी। चाहे फिर वह रेलवे के डिब्बों में हो या दिल्ली और बॉम्बे में कॉकटेल पार्टियों में। इसमें ‘मुख्यधारा के मीडिया’ ने आग में घी डालकर अपनी भूमिका निबाहने का काम किया। मेरे पसंदीदा उदाहरण में से एक, उस समय की इंडिया टुडे थी, जो कि एक राजनीतिक पत्रिका हुआ करती थी। इसकी यादें आज भी मेरे दिलो-ज़हन में मौजूद हैं। इस पत्रिका ने आडवाणी के चमकते चेहरे के साथ ‘द लोटस ब्लूम्स’ शीर्षक वाली एक कवर स्टोरी ने रथ यात्रा के अभियान को वैध बना दिया। जबकि इससे पहले 1989 में ही टेलीग्राफ और संडे ऑब्जर्वर जैसे अखबारों ने इस तरह की नफ़रत फैलाने की घटनाओं को लेकर चेतावनी दी थी और आगाह किया था। एक बार जब 400 साल पुरानी मस्जिद को सभी लोगों के सामने, दिन के उजाले में इस काम को अंजाम दे दिया गया और बड़ी संख्या में लोगों की जानो-माल का नुकसान हो गया, तब इसी मैगज़ीन ने इस कारनामे की निंदा करते हुए और धर्मनिरपेक्षता के सामूहिक और व्यक्तिगत कोशिशों की सरहना करते हुए एक पछतावे वाली कवर स्टोरी को जारी किया था। हालाँकि, इस मैगज़ीन में इस बात को लेकर कहीं कोई टिपण्णी नहीं की थी कि आरएसएस-भाजपा-विहिप (विश्व हिंदू परिषद) ने राम जन्मभूमि (भगवान राम की मूल जन्मभूमि) आंदोलन के लिए एक राजनीतिक अभियान की कपटपूर्ण रचना की। जिसका इस मैगज़ीन में कहीं कोई ज़िक्र नहीं था। वास्तव में यह केवल एक मस्जिद के विध्वंस का मसला नहीं था बल्कि भारतीय राजनीति में एक हिंसक, नफ़रत से भरी बहुसंख्यक संस्कृति के वर्चस्व की शुरुआत और उत्सव था। इस पर भी पत्रिका द्वारा कोई टिप्पणी नहीं की गई थी।
यह चलन जारी रहा। 2002 की तैयारी के लिए छः महीने से काम चल रहा था। लेकिन खासतौर पर दिसम्बर 2001 में भारत की संसद पर कायरतापूर्ण तरीके से हुए हमले के बाद[16], गुजरात के गांवों और शहरों में नफ़रत फैलाने वाले पर्चे (विहिप द्वारा गर्व से लिखे गए या ‘गुमनाम रूप से’ तैयार किए गए)[17] की बाढ़ आ गई थी। इन पर्चों में मुसलमानों का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार का आह्वान किया गया। यहाँ तक कि मुसलमान औरतों का बलात्कार करने का भी आह्वान किया गया।[18] हालाँकि गुजरात 2002 के बाद, 2004 से 2014 के बीच देश को राहत मिली थी। लेकिन यूपीए ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम[19] में जिस तरह के संस्थागत सुधारात्मक उपायों का वादा किया था, खासतौर से सांप्रदायिक और लक्षित हिंसा की रोकथाम (न्याय और सुधार हेतु) विधेयक 2011[20] जिसको लागू नहीं किया गया। इसको लेकर नौकरशाही और पुलिस महकमे की ओर से जबरदस्त प्रतिरोध हुआ। इस दशक के अंत में और 2013 में यूपीए शासन का प्रभाव घटने लगा था। जिसका फायदा उठाने के लिए पिछड़े और फासीवादी (प्रोटो-फ़ासिस्ट) तैयार थे। आने वाले दिनों में, एक धूर्त शब्द ‘लव जिहाद’ ने मान्यता हासिल कर ली थी।[21] फिर से यह सिर्फ एक ऐसी घटना थी, जिसको व्यक्तिगत और ग़लत तरह से समझा कर अल्पसंख्यक के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए इस्तेमाल किया गया।[22]
गुजरात के तत्कालीन गृह राज्य मंत्री, अमित शाह (उन्हें उस समय के चुनाव आयोग द्वारा प्रचार करने से प्रतिबंधित कर दिया गया था) और संजीव बालियान (जिसे बाद में 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली कैबिनेट में एक पुरस्कार के रूप में पदोन्नत किया गया था) ने भड़काऊ भाषण से भीड़ जुटाने और अल्पसंख्यकों को चुप कराने का काम किया था।[23]
जब हम 2020 वाले दिल्ली में पहुँचते हैं तब तक बहुत कुछ हो चुका था और बहुत कुछ बदल चुका था। अब हमें बहुसंख्यकवाद के शासन में रहते हुए छः साल गुजर चुके हैं। यह एक ऐसा शासन है, जिसमें मोदी कैबिनेट के मंत्रियों द्वारा भी मुसलमानों की लिंचिंग का जश्न मनाया जाता रहा है[24]; जहाँ वरिष्ठ मंत्रियों का बयान कानून के ख़िलाफ़ होता है[25]; जहाँ भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश का नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री बेशर्मी के साथ संविधान का विरोधी है[26]। इससे भी बुरी बात यह है कि भारत की संस्थाएं संविधान के अनुरूप ठीक से काम नहीं करती हैं।
राज्य की निष्क्रियता:
राज्य की उदासीनता न केवल अभद्रता की भाषा को नज़रंदाज़ करने में दिखाई पड़ती है बल्कि उसके बाद हिंसा को नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा बलों को तैनात तक नहीं किया जाता है। कर्फ्यू की घोषणा नहीं की जाती है, पुलिस को उच्च स्तर पर कार्रवाई का आग्रह करने वाले खुफिया जानकारी को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इन सबकी रोकथाम नहीं होने से हिंसा का चक्कर गहरा होता चला जाता है। हमने इसे 2013 में मुजफ्फरनगर, 2002 में गुजरात में और इससे भी पहले कई इस तरह की कत्लेआम की हिंसा को देखा है।
अब जबकि मारे गए लोगों का इस्तेमाल जोड़-तोड़ करने में किया जा रहा है, इसकी जगह यदि समय रहते बलों की तैनाती की जाती, सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित मानक संचालन प्रक्रियाओं (SOPS) का पालन किया जाता और समय पर कर्फ्यू लगा दिया जाता तो कांस्टेबल रतन लाल, डीसीपी अंकित शर्मा सहित पुलिस अधिकारियों की दुखद मौत हुई उसे रोका जा सकता था। अब इस हकीकत पर खासतौर पर पर्दा डाल दिया जायेगा कि 22 फरवरी के उस भड़काऊ भाषण के बाद ही हिंसा को अंजाम देने के लिए बहुत हद तक स्थिति बन चुकी थी। उसके बावजूद जान-बूझकर भारी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती को अस्वीकार कर दिया गया। इतना ही नहीं बल्कि समय रहते कर्फ्यू भी घोषित नहीं किया गया, जिससे राज्य समर्थित भीड़ के लिए भगदड़, उन्माद और हत्या करना आसान और संभव हो पाया।
नागरिकता में भी प्राथमिकता के अनुसार कुछ लोगों की मौत को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया। जबकि जिनको सबसे ज़्यादा निशाना बनाया गया (खासतौर से मुसलमानों को), उनके प्रति शोक ज़ाहिर करना तो दूर उनकी मौतों और हत्याओं को स्वीकार तक नहीं किया गया। कई भयानक हमलों और हत्याओं में से एक, कर्दमपुरी की घटना थी। जहाँ पर 24 फरवरी को कुख्यात ‘राष्ट्रगान की घटना’ को अंजाम दिया गया था। पुलिस ने फैजान, वासिम, रफ़ीक, कौसर अली, और मोहम्मद फरहान नामक पाँच नौजवानों की ज़मीन पर बैठा कर जबदस्त पिटाई की और ‘राष्ट्रगान’ गाने के लिए मजबूर किया। इस दिल दहला देने वाले कारनामे को क्रूर बहुसंख्यक राष्ट्रवाद (दिल्ली 2020) के रूप में हमेशा याद किया जायेगा। इतना ही नहीं बल्कि 24 फरवरी को मुदस्सिर के शोकग्रस्त बेटे और परिवार की ठंडे दिमाग से गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। जिसकी यादों को रायटर्स के फोटोग्राफर अदनान आबिदी ने एक तस्वीर में कैद किया था। हम अपने लोगों के साथ क्या-क्या होने देते हैं, यह सोचकर यह तस्वीर हमें शर्मसार करती है।[27]
“पुलिस हलफनामे में मौके पर मौजूद पुलिसकर्मियों के कम से कम 6 वायरलेस के संदेशों की सूची उच्च न्यायालय को सौंपी गई। (27 फरवरी, 2020 के टाइम्स ऑफ़ इंडिया को भी देखें)। ख़ुफ़िया तंत्र या इंटेलिजेंस बार-बार पुलिस के शीर्ष अधिकारियों को हिंसा के ख़तरे और हिंसा के ख़तरे से बचने के लिए अतिरिक्त बलों की जरूरत के बारे में चेतावनी दे रहा था। पुलिस के हलफनामे में खुफिया सूत्रों द्वारा की गई कॉल की स्पष्ट जानकारी मिलती है। परन्तु शायद मुमकिन है कि गृह मंत्रालय के निर्देशन में चलने की वजह से दिल्ली पुलिस के शीर्ष अधिकारियों ने ऐसी चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करना बेहतर समझा। साथ ही हिंसा को फैलने से रोकने के लिए किसी भी अत्यंत संवेदनशील जगहों पर रैपिड एक्शन फ़ोर्स को तैनात करने से भी परहेज़ किया।”[28]
“जब 23 फरवरी को हिंसा हुई थी, फिर भी हिंसा को रोकने के लिए अगले दिन क्षेत्र में प्रयाप्त पुलिस बल को क्यों नहीं तैनात किया गया था? सीएए समर्थक भीड़ को मुस्लिम बहुल कॉलोनी में जाने के लिए सड़क पार करने की अनुमति क्यों दी गई? मोहन नर्सिंग होम के मालिक के ख़िलाफ़ कोई मामला क्यों दर्ज नहीं किया गया, जबकि उस जगह का इस्तेमाल आग्नेयास्त्रों सहित हमले कि तैयारी के लिए एक बेस के रूप में किया गया?”[29] इसके बाद डीसीपी अंकित शर्मा के भाई के रहस्यमयी हलफनामे से छपी वाल स्ट्रीट जर्नल में ख़बर, हालाँकि जिससे वह बाद में मुकर गए थे। उस ख़बर में उन्होंने (डब्ल्यूएसजे 26 फरवरी, 2020) में उजागर किया कि ‘जय श्री राम’ के नारे लगाने वाली भीड़ ने उनके भाई को मार डाला। बाद में वह पीछे हट गया और उसने इस ख़बर का खंडन किया। परन्तु डब्ल्यूएसजे ने अपनी कहानी पर कायम रहते हुए कहा कि यह एक रिकॉर्ड किए गए साक्षात्कार पर आधारित है (रिपब्लिक वर्ल्ड, 02 मार्च, 2020)। जिसकी सत्यता और पूरी सच्चाई तभी सामने आ सकती है जब इसकी पूरी तरह से निष्पक्ष और न्यायिक जाँच हो।”
पुलिस का पूर्वाग्रह और मिलीभगत:
गुजरात 2002 के बाद किसी एक किताब ‘जब अभिभावक धोखा देते हैं: गुजरात में पुलिस की भूमिका’ (When Guardians Betray: The Role of the Police in Gujarat) नामक शीर्षक से मैंने एक आलेख लिखा था। इसमें मैंने लिखा था कि “क्या अभी भी किसी को शीर्ष पर बैठे कुछ पुलिस अधिकारियों से जो ऐसे विधि-नियम सिद्धांत के साथ शत्रुतापूर्ण तरीके अपनाए हुए हैं। ऐसे लोगों के दिमाग में व्यवस्थित तरीके से घुसी नफ़रत की राजनीति के बारे में किसी सुबूत की दरकरार है।’[30] अब इस स्थिति और बिखराव के दो अलग-अलग पहलू हैं। पहला भारतीय लोकतंत्र में उस समय की सरकार, दूसरा कार्यपालिका से संस्थागत रूप में भारतीय पुलिस (स्वायत्तता और स्वतंत्रता के माध्यम से) को के बच पाने की विफलता। 1980 के दशक में राष्ट्रीय पुलिस आयोग की रिपोर्ट में ऐसी स्वायत्तता या ऑटोनोमी की वकालत की गई थी, जिसमें पुलिस राज्य की विधानसभाओं के प्रति जवाबदेह होनी चाहिये न कि किसी सत्ता में पार्टी के प्रति। इस तरह की अधीनस्थ भूमिका में रहने से पुलिस को अपने स्वतंत्र संवैधानिक कामकाज में बाधा आती है। 2002 के गुजरात नरसंहार के दौरान, मुट्ठी भर वरिष्ठ अधिकारी अपनी संवैधानिक शपथ के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर कायम रहे और नतीजन उन्हें सत्ता में बैठी सरकार के प्रतिशोधी गुस्से को भुगतना पड़ा और उसकी कीमत चुकानी पड़ी।[31] 2002 से 2020 तक भारतीय राज्य का चेहरा जिस तरह बदला है उसमें हमें एक भी ऐसे पुलिस अधिकारी का उदाहरण नहीं मिलता जिसने राजनीतिक जोड़-तोड़ के ख़िलाफ़ मुकाबला किया हो। दूसरा पहलू, 2014 में राज्य सत्ता पर क़ाबिज होने से पहले ही लोकतांत्रिक शासन के संस्थानों में एक किस्म की बहुसंख्यक, वर्चस्ववादी और प्रोटो-फासीवादी विचारधारा की घुसपैठ हो गई थी। भारत का लोकतंत्र एक ख़तरनाक बहुसंख्यकवाद के रास्ते निकल पड़ा है जहाँ अब अंतर्निहित संवैधानिक मूल सिद्धांतों को बदलकर, जिसने ज़्यादा मत हासिल किया वह चुनाव प्रक्रिया के माध्यम से क्रूर संख्या और बहुमत के वोट में तब्दील हो चुका है। हमने भारतीय राज्य की इस प्रतिक्रिया को 1984 में सिख समुदाय, जम्मू और कश्मीर (खासतौर पर कश्मीर में, जो एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं) में देखा है। खासतौर से यह तब-तब देखा गया है जब लक्षित सांप्रदायिक हिंसा को तैयार करने और उससे होने वाली घटनाओं को रोकने की बात आती है। नफ़रत के भाषण (भड़काऊ भाषण जो भारत के एक हिस्से को खलनायक बनाता है) इस तरह की लक्षित हिंसा को प्रेरित करने में ख़तरनाक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहीं से विचारधारा आती है। लगभग सौ वर्षों से (1925 से), आरएसएस ने व्यवस्थित तरीके से अपने को विकसित कराते हुए बहुसंख्यक धर्मशासित हिंदू राज्य के लिए प्रतिबद्ध एक विशिष्ट विचारधारा को बढ़ावा दिया है।[32] यह विचारधारा गहरी और कपटी सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों के साथ, 3,000 साल पुरानी अलगाववादी जाति व्यवस्था को मजबूत करती है। इस विचारधारा ने 30 जनवरी, 1947 को मोहनदास गाँधी को निशाना बनाकर पहले ही भारतीय संस्थानों और लोकतंत्र के सभी क्षेत्रों में घुसपैठ बनाया हुआ है।[33] कानून प्रवर्तन और केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) भी इस कपटी घुसपैठ से अछूते नहीं बचे हैं। इस विचारधारा का ख़तरनाक पहलू यह है कि यह सत्ता को हासिल करने के लिए लोकतांत्रिक रास्ते का इस्तेमाल करता है और फिर समानता और गैर-भेदभाव के संवैधानिक लोकाचार को धता बताते हुए सीधे सत्ता का इस्तेमाल करती है। यही कारण है जिस वजह से हममें से कुछ लोग इसे प्रोटो-फासीवादी विचारधारा कहते हैं।
संस्थागत स्मृतियों का खात्मा :
1980 के दशक के बाद से कई लक्षित हत्याओं के विनाशकारी दौर ने भारतीय अल्पसंख्यकों की जान ली है मसलन, नेल्ली (18 फरवरी 1983), दिल्ली (1984), हाशिमपुरा-मलियाना (1987), भागलपुर (1989), बॉम्बे (1992-1993), और निश्चित रूप से गुजरात (2002) उसमें शामिल है। जब वैचारिक आधार और प्रभाव से दस्तावेजीकरण, अध्ययन, विश्लेषण और टिप्पणी की जाती है तो खासकर वर्दी में पुरुषों और महिलाओं के आचरण की बात सामने आती है।
यदि इस तरह की घातक विचारधारा से संस्थाओं का अलग होना होता, यदि उच्च न्यायपालिका यानी भारत की संवैधानिक अदालतें न्यायिक आयोगों की कई रिपोर्टों में की गयी सिफारिशों पर काम करतीं तो कीमती जिंदगियों को बचाया जा सकता था। क्योंकि तब पुलिस सड़कों और इलाकों में भीड़ के कब्ज़ा करने से पहले ही भड़काऊ भाषण (उकसाने का पहला संकेत) देने पर ही हरकत में आ जाती और कार्यवाही करती। विभूति नारायण राय और आर. बी. श्रीकुमार के अलावा के.एफ. रुस्तमजी, पदम रोशा, जूलियो रिबेरो, सतीश साहनी, और आरबी श्रीकुमार जैसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने इस प्रवृत्ति पर लिखा है।
मीडिया के बनाए गए चक्रव्यूह और नरसंहारी पत्रकारिता से नफ़रत करो[34]
फरवरी 2020 और उसके बाद दिल्ली के नरसंहार की त्रासदी जल्द ही सामने आने लगी। 11 मार्च, 2020 को शासन के शीर्ष पर बैठे आदमी द्वारा अचानक षड्यंत्रकारी थ्योरी की कलई खुल गयी और उसके कुछ ही दिनों में हम देश व्यापी लॉकडाउन में चले गए। अप्रैल 2020 तक भारतीय प्रवासी मजदूरों के प्रति बेशर्मी और घोर उपेक्षा का रवैया दिखाने के अलावा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने सत्तारूढ़ शासक के साथ मिलकर इस तरह के एपिसोड को तैयार किया कि पहले की तुलना में पहले से मुसीबत झेल रहे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने और उनका मनोबल तोड़ने के लिए इस कत्लेआम का ख़तरनाक दुष्प्रचार किया गया। सबसे सम्मानजनक और मुख्यधारा के इंडिया टुडे चैनल से लेकर कुख्यात ज़ी न्यूज़, सुदर्शन न्यूज़, बेस्ट हिंदी न्यूज़ और निश्चित रूप से फ़ेसबुक जैसे प्लेटफ़ॉर्म तक ने बनी-बनाई नफ़रत को फैलाने के लिए दी जाने वाली मुद्रा का सही मायनों में जमीनी स्तर पर भेदभाव और नफ़रत फैलाने के लिए इसका इस्तेमाल किया। कोविड-19 पर बने एक ‘इन्वेस्टीगेशन सीरीज’ के एक हिस्से में और इसकी सीरीज के चौथे हिस्से में, मदरसों को केन्द्रित किया गया। जिसे 10 अप्रैल, 2020 को राहुल कंवल द्वारा होस्ट किया गया, मदरसा हॉटस्पॉट: इंडिया टुडे इन्वेस्टिगेशन नामक एक शो को प्रसारित किया गया। यह एक स्ट्रिंग ऑपरेशन था, जिसे एक मदरसे में किया गया था, यह एक शातिराना चुनाव था (किसी और बच्चे के घर पर नहीं!)। जिसमें यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि कैसे बच्चों को कमरों में बंद कर दिया जाता है और वे बच्चे कोविड -19 के संक्रमण के जोखिम और जद में होते हैं। इसकी तुलना ग़लत तरीके से तब्लीगी जमात की घटना से यह दिखाने के लिए की गयी थी कि मुस्लिम समुदाय सामाजिक दूरियों के मानदंडों का पालन नहीं कर रहा है। जबकि इस तथ्य को पूरी तरह से अनदेखा किया गया कि ये मदरसे वंचित और अनाथ बच्चों के लिए आश्रय के रूप में होते हैं। वहीं दूसरे चैनलों ने कोरोना जिहाद और कोरोना सुपर स्प्रेडर जैसे घटिया शब्दों का इस्तेमाल किया। जो कि मुसलमानों के लिए था और उन पर ही चस्पा भी हो गया। बहुसंख्यक शासन के दूसरे काल में छः सालों तक चोट खाए और अपमानित हुए भारत के हाशिये पर पड़े अल्पसंख्यक पर इस हमले का और खासतौर पर शातिर तरीके से दिल्ली में हुए लक्षित कत्लेआम का उनके सामाजिक और राजनीतिक जीवन पर गहरा और गंभीर प्रभाव पड़ा है। इस नफ़रत का मुकाबला करने में भारत के राजनीतिक विपक्ष की सापेक्षिक चुप्पी ने एक बुरी स्थिति को और भी ज़्यादा ख़तरनाक और बदतर बना दिया है। ज़्यादातर आतंकवाद विरोधी कठोर कानून का अंधाधुंध इस्तेमाल, युवा नेताओं के ख़िलाफ़ यूएपीए के तहत लगाया है। इनमें से ज़्यादातर मुस्लिम हैं जिनपर ‘दंगों’ को भड़काने का आरोप हैं, यह खुद ही अपनी कहानी बयां करता है। नताशा नरवाल, देवांगना कलिता (पिंजरा तोड़) मात्र अपवाद स्वरुप हैं, नहीं तो इसके अलावा वे सभी जिन्हें बिना किसी जमानत के जेल में रखा गया है, वे भारतीय मुस्लिम प्रतिरोध के नए चेहरे हैं। जो अपनी पहचान में आत्मविश्वास से लबरेज़ और निडर हैं : मीरान हैदर, सफूरा ज़रगर, शिफा-उर-रहमान, आसिफ इकबाल तन्हा (जामिया मिल्लिया इस्लामिया), इशरत जहाँ (पूर्व कांग्रेस पार्षद), ताहिर हुसैन (निलंबित आम आदमी पार्टी के पार्षद), खालिद सैफी (यूनाइटेड अगेंस्ट हेट कैंपेन), उमर खालिद (जेएनयू, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट), शरजील इमाम (एमएसजे- मुस्लिम छात्र जेएनयू), गुलफिशा फातिमा खातून (एमबीए की छात्रा, सीएए विरोधी), तस्लीम अहमद, सलीम मलिक, मोहम्मद सलीम खान, अतहर खान, शादाब, अहमद (पूर्वोत्तर दिल्ली के सभी स्थानीय लोग) हैं। जहाँ तक उमर खालिद का सवाल है, उसकी कहानी 2016 में जेएनयू को निशाना बनाने पर वापस जाती है। ग़लत तरीके से आरोपित, वह एक मात्र ऐसा शख्स रहा है जो अपनी ग़िरफ़्तारी से साढ़े चार साल पहले इस प्रतिष्ठान में भी निशाने पर रहा है।
फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों के इर्द-गिर्द लिखना असंभव है क्योंकि यह केवल हिंसा ही नहीं थी जैसा कि कहा जाता है। बल्कि इस दौरान अभद्र भाषा और लेखन भी रहा है। जिन चीजों और राजनीतिक बातों के बारे में एक केंद्रीय समझ बनाना नामुमकिन है। भड़काऊ भाषा के इर्द-गिर्द एक राजनीतिक समझ की जरूरत होती है। यह एक ज्वलंत मुद्दा है, क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसी चीज है जिसे हम न केवल महत्व देते हैं बल्कि आज के दौर में यह भी बेहद ख़तरे में है। भड़काऊ भाषा को समझने के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेत हैं, उनमें से एक यह है कि स्वतंत्रता और समानता सामंजस्यपूर्ण अधिकार हैं जो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19(1) यदि यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है कि हर व्यक्ति को अपनी राय रखने के लिए जगह मिल सके, तो इस स्वतंत्रता या किसी व्यक्ति की आज़ादी के नाम पर दूसरों की समानता (अनुच्छेद 14) या गरिमा (अनुच्छेद 21) को नहीं छीना जा सकता। यह हमें दूसरों के साथ गैर-भेदभाव को सुनिश्चित करने के लिए ही प्रदान की गयी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तब भी समानता के अधीन है।
कानून के समक्ष समानता भी है, अर्थात क्या जाँच के तहत पाया गया कोई भी भाषण या लेखन भारतीयों के किसी समुदाय या वर्ग के लोगों की समानता, बंधुत्व और सम्मान को प्रभावित करता है? 1981 में फ्रांसिस कोरेली मुलिन बनाम द एडमिनिस्ट्रेटर, भारतीय संघ के मामले में अदालत ने यह स्थापित किया था कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अर्थ ‘सम्मानजनक जीवन’ है। इसलिए, गरिमा व्यक्तियों के ‘बुनियादी व्यक्तित्व’ के लिए मौलिक अधिकार है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि मनुष्य होने के नाते, व्यक्ति को गरिमा प्राप्त होती है और उसे गरिमा की ऐसी स्थितियों में जीने का अधिकार है।
भड़काऊ भाषा:
खासकर अगर राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक शक्ति के संदर्भ में कहें तो, भड़काऊ भाषा (लेखन) अपने स्वभाव से आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में लक्षित वर्ग की भागीदारी को कम करने का प्रयास करती है। यह उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश करती है और इसमे सफल भी है और होती भी है। ताकि उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित किया जा सके। भड़काऊ भाषा लक्षित समूहों को व्यवस्थित रूप से अमानवीय और नीचा दिखाती है। इसका उद्देश्य है कि अपनी पहचान के साथ जीने वाले समूह के सदस्यों को निष्कासन या हिंसा के डर के साये में जीने के लिए मजबूर करके उनके आत्म-मूल्य को कम करना। आपसी सम्मान को बनाने के लिए भाईचारे की एक सीधी एकजुटता बहुत जरुरी है जबकि भड़काऊ भाषा इसके विपरीत है क्योंकि यह हमारे अपने लोगों के एक हिस्से को लक्षित करती है और अलग करती है ताकि उन्हें नीचा दिखा सके। इसका जो सबसे नुकसानदायक पहलू है वह है कि यह अपने घातक प्रचार प्रभाव से हिंसा शुरू होने से हफ्तों और महीनों पहले ही एक भयावह मिली भगत से चुपचाप बहुसंख्यक तबके को फंसा लेती है।
दुर्भाग्य से हमारे पास इस पेचीदे सवाल के इर्द-गिर्द काफी ख़राब न्यायशास्त्र है; यकीनन हमारी संवैधानिक अदालतों ने इस सवाल का बचाव किया है। इस मुद्दे पर 9वीं सर्किट कोर्ट में 2006 के हार्पर बनाम पॉवे यूनिफाइड स्कूल डिस्ट्रिक्ट 445 F. 3d 1166 (9th सर्किल 2006) से इस मामले को और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। इस मामले में सुनवाई के दौरान समानता और भड़काऊ भाषा के बीच इस गठजोड़ को उस समय सबसे उचित रूप से मान्यता दी गई थी जब अदालतों ने स्कूली छात्रों को उस टी-शर्ट पहनने पर रोक लगा दिया था, जिसमें समलैंगिकता से जुड़ी सामग्री होती है।अदालत ने माना था कि इस तरह की भाषा ऐतिहासिक रूप से कमजोर समुदाय के लिए नुकसानदायक होगी। अदालत का मानना था कि ऐसा करने से यह उस समूह को और वंचित कर देगा जो अपनी एक पहचान खोजने के लिए संघर्ष कर रहा है। अंततः यह कहना सही है कि सही मायने में एक लोकतांत्रिक समाज वही होता जहाँ कई समुदाय और व्यक्ति समानता के साथ रहते हैं न कि किसी तरह के दमन के खौफ में जीते हैं। इसलिए समानता, गरिमा और सद्भाव पैदा करने के लिए नफ़रत और भड़काऊ भाषण पर रोक लगाना जरूरी है। नफ़रत से भरी भड़काऊ भाषा लोगों के एक हिस्से को अधीन बनाने का साधन है।वैसे तो भड़काऊ भाषा हर वक़्त ख़तरनाक होती है लेकिन जब यह हिंसा को उकसाती है तो इसके ख़िलाफ़ मुकदमा दायर किया जा सकता है।
‘1948 में भी गाँधी के रूप में गद्दार मौजूद थे और अब भी गद्दार मौजूद हैं’। यह कथन भारतीय संवैधानिक ढांचे के भीतर समझी जाने वाली परिभाषा नहीं है, बल्कि एक बहुसंख्यक हिंदू राष्ट्र के चश्मे में हिंसक रूप में चढ़ा हुआ है। गाँधी को आज भी ‘गद्दार’ माना जाता है, जबकि उनकी पूजा भी की जाती है। ठीक उसी तरह जैसे महिला को देवी का दर्जा दिया जाता है! परन्तु शीर्ष पर पुरुष होता है।
मूल रूप से आरएसएस से संबंधित, बेंगलुरु स्थित साधना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित और केवी सीतारमैया द्वारा लिखित ‘गाँधी: धर्म का दुश्मन, राष्ट्र का दुश्मन’ शीर्षक से छपी यह किताब 2011 में काफी बिकने वाली किताब रही थी। एक सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के ध्वजवाहकों के लिए (दोनों ने 1930 और 1940 के दशक में मुस्लिम लीग के दो राष्ट्र सिद्धांत को प्रोत्साहित किया और अपने स्वयं के गैर-समतावादी ‘राष्ट्र’ को बढ़ावा दिया) गद्दार तब भी और आज भी वही लोग हैं जिन्होंने स्पष्ट रूप से और दृढ़ विश्वास के साथ डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर-गाँधी-आजाद-नेहरू के नागरिकता की समानता पर आधारित राज्य के संवैधानिक सिद्धांतों को प्रेरित किया, न कि आस्था, नस्ल या रंग के आधार को बढ़ावा दिया।
सत्ता और पद पर बैठे लोगों द्वारा दिल्ली की सड़कों पर की गई क्रूरता के सामने आम लोगों की केवल ईमानदारी और मानवता में ही हमारी मुक्ति हो सकती है। बेरहमी से मारे गए, एक घरेलू नौकर के 15 वर्षीय बेटे नितिन पासवान के परिवार पर कथित तौर पर पुलिस द्वारा झूठ बोलने और यह कहने का दबाव डाला जा रहा है कि उनके बेटे की हत्या मुसलमानों ने की थी। परिवार इसी सच पर अड़ा हुआ है। उसी गली में जहाँ वरिष्ठ पुलिस अधिकारी अंकित शर्मा रहते थे, एक हिंदू व्यक्ति ने एक मुस्लिम पड़ोसी और उसके बीमार बेटे को कई दिनों अपने यहाँ रहने की जगह दी थी।
विडंबना यह है कि 2014 में चुनी गयी सरकार के द्वारा संविधान का हवाला देकर समान नागरिकता के संवैधानिक गारंटर पर सीधा हमला किया जा रहा है। 1947 में आज़ादी के बाद से पहली बार, ऐसा लग रहा है कि भारत पर कब्ज़ा कर लिया गया है। जैसा कि एक राजनीतिक ताकत ने इसे अपनी अनूठी और ऐतिहासिक शैली, यानि कि स्वतंत्रता के लिए असंख्य संघर्षों के माध्यम से – राष्ट्रीय आंदोलन – और अंत में, औपचारिक रूप से संविधान सभा की बहसों के माध्यम से अलग-थलग करने ली शपथ थी। [35]इससे पहले 1999 से 2004 के बीच हमने इसी तरह की कोशिशों के निशान देखे थे। उस वक़्त यह पार्टी अल्पमत शासन के तहत, शिक्षा, संस्कृति और कानून व्यवस्था के क्षेत्र में बहुसंख्यकवाद की ओर बदलाव करने की मांग की कर रही थी।[36] आज भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ एक संगठित तरीके की लक्षित हिंसा है। हालांकि, इस राजनीतिक कब्जेदारी से पहले भारत के दलितों (विशेषकर महिलाओं) के ख़िलाफ़ रोजमर्रा की जातीय हिंसा को वास्तव में कभी खत्म नहीं किया गया।[37] 1980 के दशक में, पहले 18 फरवरी, 1983 को नेल्ली में और फिर 1 से 3 नवम्बर, 1984 के दौरान दिल्ली में हमने सरकार प्रायोजित/समर्थित कत्लेआम देखा। यह कत्लेआम क्रमशः बंगाली बोलने वाले मुस्लिम, असमियों और सिखों का किया गया था।
1980 के दशक के मध्य से भारतीय राज्य और समाज एक अशांत बहुसंख्यकवादी और यकीनन क्रूर ढांचे में तब्दील होता दिखाई दे रहा है। उस दौर में सत्ता में एक मध्यमार्गी पार्टी थी जिसने आज़ादी के बाद से लगातार शासन किया। भारत की नीति और कानून, राजनीति और गैर-आशंकित (un-calibrated) चुनाव प्रक्रिया ने भारतीय राज्य और समाज में वास्तविक धर्मनिरपेक्षता को रोकने में अपनी भूमिका निभाई है। वास्तविक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र तभी संभव हो सकेगा जब सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व, संसाधनों के पुनर्वितरण, रोजगार और शिक्षा तक लोगों की बराबर पहुंच के माध्यम से राज्य संरचनाओं और एजेंसियों का वास्तविक लोकतंत्रीकरण किया जायेगा। सामाजिक लोकतंत्र केवल राजनीतिक लोकतंत्र ही नहीं है जिसकी हमें आवश्यकता है, यह कहते हुए अम्बेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में चेतावनी देते हुए कहा था:
राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक… सामाजिक लोकतंत्र का आधार न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जीवन जीने का एक तरीका जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में पहचानता हो…
…वे एक मायने में त्रिमूर्ति का एक संघ बनाते हैं जिसका अर्थ है एक दूसरे से अलग हो जाना, यानि लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को हराना है…
समानता के बिना, स्वतंत्रता कई लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता को कायम करेगी।
बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता कई लोगों पर कुछ लोगों की सर्वोच्चता को कायम करेगी।
बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता कोई स्वाभाविक चीज़ नहीं बन सकती थी। उन्हें लागू करने के लिए एक हवालदार की जरूरत होगी।”
ज़्यादातर लोगों का कुछ लोगों पर राजनीतिक समर्पण और राजनीति के लिए संघर्ष: भारतीय संविधान की प्रस्तावना के शब्द हैं।
क्या तब प्रगतिशील, खुले दिमाग से दिखने वाला राष्ट्रवाद जैसी कोई चीज है जिसे एक साथ समाहित किया जा सकता है? यूरोप में राष्ट्र-राज्य के उभरने के बारे में राजनीतिक और ऐतिहासिक रूप से समझदार लोगों का अभी भी यह मानना है कि यह वही अवधारणा है जहाँ विभिन्न तरह के कुलीन वर्गों ने शासन किया है। इस तरह के अजीबोगरीब इतिहास को देखते हुए क्या माना जा सकता है कि ऐसी अवधारणा संभव थी या संभव है।
आज जबकि कुछ लोग कश्मीर में भी कब्जे की शुरुआत के बारे में बात करते हैं, उस वक़्त शेख अब्दुल्ला ने ही सांप्रदायिक डोगरा राजा हरि सिंह के विरोध में धर्मनिरपेक्ष संघ में शामिल होने का फैसला किया था। निश्चित रूप से मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र द्वारा उभरते भारतीय धर्मनिरपेक्ष राज्य में चुने जाने के विकल्प के पीछे कुछ तो मतलब रहा होगा? लेकिन हाँ, पिछले छः साल हमारे सामने एक डरावना सवाल छोड़ता है। चुनाव आयोग और उच्च न्यायालयों जैसे संवैधानिक संस्थानों का काम के प्रति उदासीन रवैये और संवैधानिक बुनियाद को खोखला किए बगैर क्या कागज़ी दस्तावेज पर वास्तविक संशोधन के बिना एक बहुसंख्यक लोकतांत्रिक राज्य अस्तित्व में रह सकता है (जो कि लगभग शुरू हो चुका है)? यह फ़िजूल नहीं है कि आरएसएस ने अपने दिल्ली स्थित मुख्यालय झंडेवाला बाग में राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करने के अपने पहले असफल प्रयासों के बाद पहली वर्ष 2000 में ही तिरंगा फहराया था। तब से समकालिक और समग्र राष्ट्रवाद के प्रतीक तिरंगे (जिसे गोलवलकर और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा पूरी तरह से खारिज कर दिया गया था) को दादरी की लिंचिंग में शामिल और यहाँ तक कि कठुआ[38] में एक युवा लड़की से बलात्कार के लिए जिम्मेदार लोगों के अपराध को ढंकने और उनकी बर्बरता को वैध बनाने के लिए भी तिरंगे का इस्तेमाल किया गया। भारत के अशिक्षित और हाशिए पर पड़े प्रदर्शनकारियों ने भारतीय नागरिकता और राष्ट्रीयता के अपने दावे के उस ऐतिहासिक क्षणों में ही उस तिरंगे पर भी फिर से हासिल कर लिया है। इस तरह से उन्होंने भारतीय ध्वज पर आधिपत्यवादी बहुसंख्यक ताकत के उनके अपमानजनक दावे को लगभग ख़ारिज कर दिया।[39] तो क्या समझा जाये कि भारतीय तिरंगा पूरी तरह से हिन्दुत्व की निशानी बन गया? या फिर यह भारतीय राज्य के विचार पर एक दावे या अधिकार की तरह है जिसे वह अपनी वैचारिक इच्छा में बदल देगा। क्या होगा! यह वक़्त और जन प्रतिरोध की ताक़ते ही आगे बता पाएंगी।
(यह लेखक द्वारा लिखे गए एक लेख का लंबा संस्करण है, जिसे एक प्रसिद्ध पत्रकार और सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस की सचिव द्वारा लिखा है, जिसे हेट एज़ स्टेट प्रोजेक्ट: दिल्ली पोग्रोम 2020 (Hate as State Project: Delhi Pogrom 2020 ) नामक पुस्तक में देहली एगनी, लेफ्टवर्ड, 2021 (Delhi’s Agony, Leftword, 2021) शीर्षक से प्रकाशित किया गया है।)
[1]The Ideology of the RSS is both hate-ridden and supremacist, Setalvad,
https://sabrangindia.in/indepth/ideology-rashtriya-swayamsevak-sangh-rss-both-hate-ridden-and-supremacist-part-1
[2]Beyond Doubt-A Dossier on Gandhi’s Assassination, 2015 Introduction, Teesta Setalvad
[3]https://www.firstpost.com/india/shoot-the-traitors-bjps-anurag-thakur-leads-crowd-in-chant-against-anti-caa-protesters-at-bjp-rally-in-new-delhi-7963121.html
[4]The Indian minister for home affairs revealed the cards of the ruling party when he, post 2019, use hate and venom when speaking of the proposed then newly legislated CAA, 2019, dubbing refugees or immigrants as ‘termites’ and then after violence had been orchestrated and unleashed in the run up to the Delhi state elections, he officially informed Parliament of the ‘conspiracy’ behind the violence. (March 11, 2020)
[5]Shuddhabrata Sengupta, ‘The Garden of Freedom: Lessons that Shaheen Bagh teaches us about citizenship’ (The Caravan, 2 February 2020). https://caravanmagazine.in/politics/lessons-that-shaheen-bagh-teaches-us-about-citizenship. Accessed 19 June 2020
[6]Our experience in Assam of the citizenship imbroglio has been an eye opener leading my organisation, CJP, into pro-active para-legal and legal activism. See updates on cjp.org.in/assam.
[7] Since 2017, we have attempted to bring the dangerous course of a documented test for citizenship –and as it had emotionally and physically impacted a third of Assam’s population—to the rest of India.
[8] Many meanings of Shaheen Bagh, Arshad Alam; https://www.sabrangindia.in/article/many-meanings-shaheen-bagh;
[9]https://sabrangindia.in/article/shaheen-bagh-shooter-warmly-welcomed-then-coldly-expelled-bjp
[10]https://cjp.org.in/who-is-an-indian-a-complete-guide-to-the-nrc-in-india/
[11] Hanna Ellis-Petersen and Shaikh Azizur Rahman, ‘Delhi’s Muslims despair of justice after police implicated in riots’ (The Guardian, 16 March 2020). https://www.theguardian.com/world/2020/mar/16/delhis-muslims-despair-justice-police-implicated-hindu-riots. Accessed 19 June 2020; Parijat, ‘A mosque on fire, shops looted, people celebrating: My five hours in northeast Delhi’ (The Caravan, 27 February 2020). https://caravanmagazine.in/conflict/delhi-violence-gokalpuri-mosque-fire. Accessed 19 June 2020.
[12] CJP Team, ‘Sign CJP’s online petition to CJI Bobde to hold Kapil Mishra accountable for instigating the Delhi violence and prosecute him’ (CJP, 26 February 2020). https://cjp.org.in/sign-cjps-online-petition-to-cji-bobde-to-hold-kapil-mishra-accountable-for-instigating-the-delhi-violence-and-prosecute-him/. Accessed 19 June 2020.
[13] CJP Team, ‘Sign CJP’s online petition to CJI Bobde to hold Kapil Mishra accountable for instigating the Delhi violence and prosecute him’ (CJP, 26 February 2020). https://cjp.org.in/sign-cjps-online-petition-to-cji-bobde-to-hold-kapil-mishra-accountable-for-instigating-the-delhi-violence-and-prosecute-him/. Accessed 19 June 2020.
[14] Fanning the Flames, https://www.sabrang.com/cc/archive/2002/marapril/faming.htm
[15] Kabir Agarwal, ‘L.K. Advani, the Provocateur in Chief’ (The Wire, 9 November 2019). https://thewire.in/As the plans for the rath yatra loomed, hate pervaded the air, be it in railway compartments or cocktail parties in Delhi and Bombay. politics/the-provocateur-in-chief-l-k-advani. Accessed 19 June 2020.
[16]For an analysis of the repressive state response in the wake of the attack see Arundhati Roy, The Hanging of Afzal Guru (Penguin 2016).
[17]For an analysis of the repressive state response in the wake of the attack see Arundhati Roy, The Hanging of Afzal Guru (Penguin 2016).
[18]For an analysis of the repressive state response in the wake of the attack see Arundhati Roy, The Hanging of Afzal Guru (Penguin 2016).
[19] ICF, ‘“A huge compromise has been made by our so-called intellectuals.”’ (Sabrang, 22 September 2016). https://sabrangindia.in/article/huge-compromise-has-been-made-our-so-called-intellectuals. Accessed 19 June 2020.
[20] ICF, ‘“A huge compromise has been made by our so-called intellectuals.”’ (Sabrang, 22 September 2016). https://sabrangindia.in/article/huge-compromise-has-been-made-our-so-called-intellectuals. Accessed 19 June 2020.
[21] See Charu Gupta, ‘Hindu Women, Muslim Men: Love Jihad and Conversions’ (2009) 44 (51) Economic and Political Weekly 13.
[22] Subhashini Ali, ‘In Amit Shah’s Promise of Anti-Romeo Squads, A Large Threat’ (NDTV, 7 February 2017). https://www.ndtv.com/opinion/in-amit-shahs-promise-of-anti-romeo-squads-a-large-threat-1656622. Accessed 19 June 2020; Ram Puniyani, ‘Muzaffarnagar + Dadri + Kairana = Jihad + Beef + “Hindu” Exodus = Hard Communalism = Votes’ (The Citizen, 17 June 2016).https://www.thecitizen.in/index.php/en/NewsDetail/index/4/7990/Muzaffarnagar-Dadri–KairanaLove-JihadBeefHindu-ExodusHard-CommunalismVotes. Accessed 19 June 2020.
[23] Rupam Jain, ‘Divisive politics return as Narendra Modi eyes UP election’ (Livemint, 13 February, 2016) https://www.livemint.com/Politics/LP4yEop2QmrqXllo8vdabN/Divisive-politics-return-as-Narendra-Modi-eyes-UP-elections.html. Accessed 19 June 2020.
[24] SabrangIndia Staff, ‘Look Who’s Talking! Hate speech can’t be free speech, says Jaitley’. (Sabrang, 26 February 2016). https://sabrangindia.in/article/look-whos-talking-hate-speech-cant-be-free-speech-says-jaitley. Accessed 19 June 2020.
[25] SabrangIndia Staff, ‘Look Who’s Talking! Hate speech can’t be free speech, says Jaitley’. (Sabrang, 26 February 2016). https://sabrangindia.in/article/look-whos-talking-hate-speech-cant-be-free-speech-says-jaitley. Accessed 19 June 2020.
[26] SabrangIndia Staff, ‘Look Who’s Talking! Hate speech can’t be free speech, says Jaitley’. (Sabrang, 26 February 2016). https://sabrangindia.in/article/look-whos-talking-hate-speech-cant-be-free-speech-says-jaitley. Accessed 19 June 2020.
[27]Cover photo, delhi CPI-M report
[28]Delhi CPIM Report into the Delhi Pogrom
[29]Ibid
[30] Teesta Setalvad, ‘When Guardians Betray: The Role of the Police in Gujarat’ in Siddharth Varadarajan (ed), Gujarat: The Making of a Tragedy (Penguin 2002) 178.
[31]RB Sreekumar, former Additional Director General of Police (Intelligence), Rahul Sharma, then SP Bhavnagar, and former senior Indian Police Service officers Rajnish Rai and Samiullah Ansari, are but a few examples. I have elaborated these in my work and this finds its place in the pending Zakia Ahsan Jafri’s Special Leave Petition against the SIT, Union of India and State of Gujarat. See, Teesta Setalvad, ‘Zakia Jafri’s Case is a Reminder of How the Guilty of Gujarat Subverted the Law’ (The Wire, 18 November 2018). https://thewire.in/rights/zakia-jafri-2002-gujarat-violence-supreme-court. Accessed 19 June 2020.
[32] See A.G. Noorani, RSS: A Menace to India (LeftWord 2019).
[33] See Dhirendra K. Jha, ‘The Apostle of Hate,’ (TheCaravan, 1 January 2020), https://caravanmagazine.in/reportage/historical-record-expose-lie-godse-left-rss. Accessed 19 June 2020.
[34]https://cjp.org.in/hate-hatao
[35]Ibid
[36]Education with Values Setalvad,, Communalism Combat, January 2001, https://sabrang.com/cc/archive/2001/jan01/costory.htm
[37]1961, the Jabalpur bout of communal violence
[38] Yashwant Thorat, ‘As the Kathua Trial Begins, Let Us Remember What Hindu Dharma Really Stands For’ (The Wire, 4 June 2018). https://thewire.in/communalism/as-the-kathua-trial-begins-let-us-remember-what-hindu-dharma-really-stands-for. Accessed 20 June 2020.
[39] Radhika Ramaseshan, ‘Flag Sangh did not fly for 52 years’ (The Telegraph, 20 February 2016). https://www.telegraphindia.com/india/flag-sangh-did-not-fly-for-52-years/cid/1515040. Accessed 20 June 2020.