सीएए (नागरिकता संशोधन क़ानून) पर केन्द्र सरकार द्वारा जारी प्रश्नोत्तरी (FAQ) का नुक़्तेवार खण्डन भारत सरकार की प्रश्नोत्तरी जितना बताती है उससे अधिक छिपाती क्यों है - एडवोकेट मिहिर देसाई
16, Jan 2020 | Mihir Desai
सीएए/एनआरसी पर केन्द्र सरकार द्वारा जारी प्रश्नोत्तरी (FAQ) पूरी तरह गुमराह करनेवाली है और कई बार तो यह बिल्कुल झूठी जानकारी देती है। यह जितना बताती है उससे कहीं अधिक छिपाती है। सरकार ने हर सवाल का जो जवाब जारी किये हैं, उनमें से हर जवाब के अन्त में मेरी टिप्पणियाँ भी हैं।
अक्सर पूछे जानेवाले सबसे अहम सवालों को इस प्रश्नोत्तरी में उठाया तक नहीं गया है:
जिन आठ प्रश्नों को उठाये जाने की ज़रूरत थी और जो सरकार की प्रश्नोत्तरी विवरण तालिका से ग़ायब हैं, वे इस प्रकार हैं।
पहला : इस सूची में केवल तीन देशों – पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश – के प्रताड़ित धार्मिक समूहों को ही क्यों शामिल किया गया है। अन्य पड़ोसी देशों, जैसे श्रीलंका (सभी धर्मों के तमिल), म्यांमार (रोहिंग्या), और चीन (ख़ासकर बौद्धधर्म को माननेवाले तिब्बती और उइगर) के धार्मिक अल्पसंख्यकों को क्यों शामिल नहीं किया गया है। इसका कारण विभाजन को नहीं बताया जा सकता क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान का विभाजन से कुछ भी लेना-देना नहीं था। हालाँकि सीएए में जिन समुदायों का ज़िक्र किया गया है, उनकी प्रताड़ना से इन्कार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह समझना ज़रूरी है कि क्यों केवल कुछ ख़ास देशों के ख़ास समुदाय ही इसमें शामिल किये गये हैं।
दूसरा : जब अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देने की कोशिश की ही जा रही है तो फिर उन्हीं देशों के बलूच, अहमदिया और शिया जैसे अन्य प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को वैसी ही सुरक्षा क्यों नहीं मुहैया करायी जा रही है। उनकी प्रताड़ना के भी पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं। केवल एक उदाहरण दें तो पाकिस्तान में अहमदिया समुदाय को 1974 में ग़ैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक घोषित कर दिया गया था और अहमदिया लोग हालाँकि ख़ुद को मुस्लिम ही मानते थे, इसके बावजूद 1984 में क़ानून पारित कर उनके लिए ख़ुद को मुस्लिम कहना, इस्लाम को अपना धर्म बताना, या सार्वजनिक तौर पर इस्लाम धर्म का पालन करना दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया गया। पाकिस्तान में अहमदिया लोगों पर लगातार हमले होते रहे हैं और उनकी हत्या की जाती रही है। ज़ाहिरा तौर पर वे एक प्रताड़ित समूह ही हैं। एक दूसरा उदाहरण लेते हैं, पिछले कई दशकों से चकमा जनजाति के लोग उत्पीड़न और अन्य कारणों के चलते बंगलादेश से उत्तर-पूर्वी राज्यों में हज़ारों की संख्या में आकर बस गये हैं। उनमें से कइयों को नागरिकता मिल चुकी है पर कई ऐसे हैं जिन्हें नागरिकता नहीं दी गयी है और वे नागरिकता की माँग कर रहे हैं। उनकी एक भारी तादाद बौद्ध धर्म को माननेवाली है, इसलिए वे सीएए के तहत नागरिकता के हक़दार हैं। लेकिन उनका एक हिस्सा ऐसा भी है जो इस्लाम को मानता है। तो क्या आप ग़ैरमुस्लिम चकमाओं को नागरिकता देंगे और मुस्लिम चकमाओं को नहीं, जबकि देखा जाये तो उनकी स्थिति एक जैसी ही है।
तीसरा : 1951 के रिफ़्यूजी कन्वेन्शन और 1967 के प्रोटोकॉल के तहत, उन लोगों को शरणार्थी का दर्ज़ा दिया जाना चाहिए, जो जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता या विशेष राजनीतिक मत के कारण उत्पड़ित होते हैं। इन दोनों में भारत हालाँकि किसी का भी सदस्य नहीं है, फिर भी, यदि उत्पीड़न ही शरणार्थियों को नागरिकता देने का पैमाना है तो क्यों केवल ग़ैर-मुस्लिम धार्मिक समूहों को उत्पड़ित मानकर उन्हें ही ये सारी सुविधाएँ दी जा रही हैं, उन्हें क्यों नहीं, जो अन्य वजहों से उत्पड़ित किये जा रहे हैं? उदाहरणस्वरूप 19 दिसम्बर, 2019 को एक पाकिस्तानी शिक्षाविद् ज़ुनैद हाफ़ीज़ को ईश निन्दा के लिए मौत की सज़ा दी गयी थी। यह साफ़ तौर पर बोलने की आज़ादी के लिए होनेवाली प्रताड़ना थी। पड़ोसी मुल्कों में इस तरह या किसी अन्य तरीके से लोगों की एक बहुत बड़ी आबादी राजनीतिक रूप से उत्पड़ित की जा रही है। अगर भारत प्रतताड़ितों की मदद करना ही चाहता है तो भारतीय नागरिकता उन्हें क्यों नहीं दी जा रही है जिनको धर्म के अलावा अन्य आधारों पर प्रताड़ित किया जा रहा है?
चौथा : कुछ लोगों को उनके धर्म के आधार पर नागरिकता क्यों प्रदान की जा रही है। यह खुले तौर पर धर्मनिरपेक्षता के ख़िलाफ़ है, जो न सिर्फ़ संविधान की प्रस्तावना का हिस्सा है बल्कि जिसे सर्वोच्च अदालत द्वारा संविधान की मूल सरंचना का अंग माना गया है। भारत का संविधान वह पहला दस्तावेज़ है जो नागरिकता निर्धारित करता है और देता है। ज़ाहिर है यह विभाजन और उससे मिले सारे जख़्मों के फ़ौरन बाद ही अमल में आया। इसके बावजूद, इसने पाकिस्तान (पूर्व और पश्चिम दोनों) के प्रवासियों को नागरिकता हासिल करने की इजाज़त दी और कभी धर्म के आधार पर उनके बीच भेदभाव नहीं किया। असम समझौते में नागरिकता निर्धारण के लिए असम में प्रवेश की अन्तिम तिथि (कट-ऑफ़ डेट) 25 मार्च, 1971 रखी गयी थी लेकिन धार्मिक आधार पर उसमें कोई भेदभाव नहीं किया गया था। आप्रवासी (असम से निष्कासन) क़ानून,1950 भी धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता है। इसलिए अब धार्मिक कोण शामिल करने का कोई औचित्य नहीं है। अगर पड़ोसी देशों के प्रताड़ित व्यक्तियों को सुरक्षा देनी ही थी तो यह सुरक्षा सभी प्रताड़ित व्यक्तियों को मिलनी चाहिए थी।
पाँचवाँ : सीएए के तहत नागरिकता क्यों केवल उन्हीं लोगों की दी जा रही है जो 31.12.2014 से पहले भारत आये हैं? क्या इन देशों में 31.12.2014 के बाद से प्रताड़ना बन्द हो गयी है?
छठा : एनआरसी में वित्तीय और मानव संसाधन पर होनेवाला ख़र्च क्या होगा और भारत यह जोखिम क्या उठा भी पायेगा। असम में लगभग 100* लोग अपनी जान गँवा चुके हैं और उनकी मौत नागरिकता से जुड़े मामलों से सम्बन्धित है। जहाँ कुछ लोगों ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) के चलते हताशा, चिन्ता और लाचारी में आत्महत्या कर ली है, वहीं कुछ ने डिटेंशन शिविरों में क़ैद किये जाने के डर से जान दे दी है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनकी डिटेंशन शिविरों में रहस्यमयी परिस्थितियों में मौत हुई है। असम एनआरसी की लागत 1,600 करोड़ रुपये थी और 3.3 करोड़ लोगों का नाम दर्ज करने के लिए 50,000 कर्मचारी तैनात किये गये थे। अब हम इस बात को जानते हैं कि रजिस्टर जब पूरा हुआ तो 19 लाख लोग, जिनमें सभी धर्मों से जुड़े ज़्यादातर लोग वास्तव में नागरिक थे, उस रजिस्टर से बाहर हो गये थे। यदि हम केवल 87.9 करोड़ भारतीय मतदाताओें की गिनती करें और इसे मोटे तौर पर हुई गणना मानें तो पूरे भारत के लिए एनआरसी का ख़र्च 4.26 लाख करोड़ रुपये आयेगा और इसे अंजाम देने के लिए 1.33 करोड़ कर्मचारियों की ज़रूरत पड़ेगी। इसके साथ ही डिटेंशन शिविरों का निर्माण करने की ज़रूरत पड़ेगी यह ख़र्च लोगों पर पड़नेवाले भारी भरकम ख़र्च के अलावा है। अगर असम में देखा जाये तो एक बड़ी संख्या में लोग अपनी ज़मीन बेचने पर मजबूर हुए हैं और उच्च न्यायालय व फ़ॉरेनर्स ट्रिब्युनल्स में अपने मुक़दमे की पैरवी करने के लिए वकीलों को पैसा चुकाने में ख़स्ताहाल हुए जा रहे हैं।
*सिटिजन्स फ़ॉर जस्टिस एण्ड पीस संस्था द्वारा असम में की गयी मृत्यु-सम्बन्धी गणना से यह पता चलता है कि 28 मौतें डिटेंशन शिविरों में हुईं और बाक़ी मौतें घरों में आत्महत्या से, दिल के दौरे से या गम्भीर चोट लगने से हुईं।
सातवाँ : क्या एनआरसी की कोई ज़रूरत है भी? एनआरसी देश के नागरिकों का एक रजिस्टर है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 और जन प्रतिनिधित्व क़ानून, 1950 के तहत केवल नागरिकों को ही मताधिकार प्राप्त है। इसलिए वे सभी लोग जो मतदाता सूची में हैं, उन्हें ज़ाहिर है कि नागरिक माना गया है। पूरे भारत के मतदाता सूचीपत्रों को इकट्ठा करने पर आपको स्वत: ही 18 वर्ष के ऊपर के सभी लोगों का सम्पूर्ण नागरिकता रजिस्टर मिल जायेगा। तो फिर ये सारी चीज़े क्यों दोहरायी जायें? 18 से कम उम्र के लोग इतने बड़े नहीं होते हैं कि वे अपने दम पर किसी दूसरे देश से भारत में आ सकें। इसलिए, उनके माता-पिता यदि मतदाता सूची में शामिल हैं तो बच्चे स्वत: ही (कुछ अपवादों को छोड़कर) नागरिक बन जायेंगे। तब हर एक के लिए अपने नागरिक होने का फिर से सबूत देना आवश्यक बना देने का (असली) मक़सद क्या हो सकता है। इसके पीछे तो यही मंशा काम कर सकती है कि सभी समुदायों (ख़ासकर दलितों, आदिवासियों, स्त्रियों और ट्रांसजेण्डर लोगों) के ग़रीबों की एक भारी आबादी और मुसलमानों के एक बड़े हिस्से को नागरिकता के अधिकार से वंचित कर दिया जाये। एनआरसी के बिना भी विदेशियों सम्बन्धी अधिनियम, 1946 के तहत सरकार को अवैध आप्रवासियों को बाहर निकालने का अधिकार प्राप्त है। दशकों से उन लोगों को ”हटाने” के लिए, जिन्हें विदशियों के रूप में देखा जाता है, नियमित मुक़दमे चलाये जाते हैं। एनआरसी की यह पूरी क़वायद और कुछ नहीं बस ख़ौफ़ पैदा करना और ऐसे लोगों का एक विशाल समूह बनाना है, जो मतदाता नहीं होंगे, जिनके लिए कल्याणकारी योजनाएँ नहीं होंगी और जिन्हें अलग-अलग ”डिटेंशन शिविरों” में सम्भवत: दास श्रम के रूप में इस्तेमाल किया जायेगा, यहाँ तक कि अगर वे आज़ाद भी हो जायें तो बिना किसी अधिकार के एक ऐसी आबादी में शामिल होंगे जो मज़दूर के रूप में बेहद सस्ते दरों पर उद्योगपतियों और उनके दलालों को उपलब्ध होते रहेंगे।
आठवाँ : यदि प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एनआरसी प्रक्रिया शुरू करने की कोई योजना नहीं है तो जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की क़वायद क्यों की जा रही है। 31 जुलाई, 2019 को केन्द्र सरकार द्वारा एक अधिसूचना जारी की गयी थी कि 1 अप्रैल, 2020 से 30 सितम्बर, 2020 के बीच देरभर में एनपीआर की प्रक्रिया चलायी जायेगी। जनगणना और जनसंख्या रजिस्टर के बीच भ्रम पैदा करने की कोशिश की गयी है। लेकिन जनसंख्या रजिस्टर एनआरसी के नियम 4 का हिस्सा है जबकि जनगणना जनगणना अधिनियम के अधीन है जो पूरी तरह से एक स्वतंत्र अधिनियम है और जिसका उद्देश्य बिल्कुल अलग है। इसलिए जब जनसंख्या रजिस्टर तैयार किया जा रहा है तो यह एनआरसी की दिशा में पहला क़दम है। ”जनसंख्या रजिस्टर” का इसके सिवाय कोई अन्य उद्देश्य नहीं है कि वह पूरे भारत में एनआरसी के काम को आगे बढ़ाये।
आइए अब हम सरकार की प्रश्नोत्तरी को देखें
प्रश्न1. क्या एनआरसी सीएए का ही एक अंग है?
उत्तर : नहीं, सीएए एक अलग क़ानून है और एनआरसी एक अलग प्रक्रिया है। सीएए संसद में पारित होने के बाद पूरे देश में लागू हुआ है, जबकि देश के पैमाने पर एनआरसी के नियम और प्रक्रियाएँ अभी तय नहीं हुई हैं। असम में चलनेवाली एनआरसी प्रक्रिया को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कार्यान्वित और असम समझौते द्वारा अधिकृत किया गया है।
यह केवल आंशिक सच्चाई है। नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) नागरिकता अधिनियम में किया गया संशोधन है। एनआरसी प्रक्रिया ‘नागरिकों की नागरिकता पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने सम्बन्धी नियम, 2003’ के अधीन आती है। एनआरसी नियम पहले ही 2003 में अधिसूचित किये जा चुके हैं। ये नियम नागरिकता अधिनियम के तहत हैं। सीएए और एनआरसी दोनों के अन्तर्गत आवश्यक दस्तावेज़ों की प्रकृति अभी अधिसूचित की जानी है। सीएए के अन्तर्गत हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, पारसी, जैन और सिख समुदाय से आनेवाले व्यक्ति के लिए यह दिखाना अनिवार्य है कि उसने 31.12.2014 के पहले पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफ़ग़ानिस्तान से भारत में प्रवेश किया है। हालाँकि यह निर्धारित नहीं किया गया है कि इसे साबित करने के लिए क्या सबूत आवश्यक हैं। इसी प्रकार एनआरसी के तहत नागरिकता साबित करने के लिए आवश्यक दस्तावेज़ किस तरह के होंगे यह भी अभी दिया नहीं गया है। एनआरसी के बिना भी सीएए बना रह सकता है, इस अर्थ में कि जो प्रवासी सीएए के तहत सुरक्षित हैं वे किसी एनआरसी प्रक्रिया के अधीन आये बिना नागरिकता की माँग कर सकते हैं, परन्तु अब सीएए के बिना एनआरसी नहीं हो सकता। ऐसा इसलिए, क्योंकि सीएए क़ानून बन चुका है (जबतक कि उच्चतम अदालत उसे रद्द नहीं कर देता) और एनआरसी के तहत नागरिकता निर्धारित करते समय यह तय करने के लिए कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं, सीएए को ध्यान में रखना होगा।
प्रश्न 2. क्या भारतीय मुसलमानों को सीएए और एनआरसी से चिन्तित होने की ज़रूरत है?
उत्तर : सीएए या एनआरसी के बारे में किसी भी धर्म के भारतीय नागरिक को चिन्तित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
यह पूरी तरह से भ्रामक है। एनआरसी की प्रक्रिया ही यह तय करेगी कि आप भारतीय नागरिक हैं या नहीं। इसलिए यदि आप को यह लगता भी है कि आप एक भारतीय नागरिक हैं, जिसके पास अपना पासपोर्ट, मतदाता कार्ड, राशन कार्ड, आधार कार्ड, पैन कार्ड आदि है तो भी एनआरसी की प्रक्रिया में आप बाहर किये जा सकते हैं। यह सभी धर्मों के लिए सच होगा। एक बार जब आप बतौर नागरिक घोषित कर दिये जाते हैं तब आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन यह किसी को भी पता नहीं होता कि एनआरसी के अन्तर्गत उसे नागरिक घोषित किया भी जायेगा अथवा नहीं। विभिन्न दस्तावेज़ों में दर्ज़ नाम की वर्तनी में ( चाहे वह ख़ुद का नाम हो या अपने माता-पिता का) एक साधारण सा फ़र्क़ आने पर ही लोग असम एनआरसी से बाहर होकर किसी भी राज्य के नागरिक नहीं रह गये हैं।
प्रश्न 3. क्या एनआरसी किसी ख़ास धर्म के लोगों के लिए होगा?
उत्तर : नहीं। एनआरसी का किसी भी धर्म से कुछ लेना-देना नहीं। एनआरसी भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए है। यह एक नागरिक रजिस्टर है, जिसमें सभी नागरिकों के नाम दर्ज़ किये जायेंगे।
वास्तव में सम्भावना इस बात की है कि यह हाशिये पर रहनेवाले लोगों की एक बड़ी आबादी को जो, उचित दस्तावेज़ों के अभाव में अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर सकती, बाहर कर देगा। मुद्दा यह है कि क्या एनआरसी आवश्यक है भी।
प्रश्न 4. क्या धार्मिक आधार पर लोगों को एनआरसी में शामिल नहीं किया जायेगा?
उत्तर : नहीं, एनआरसी किसी भी धर्म के बारे में बिल्कुल नहीं है। एनआरसी को जब भी लागू किया जायेगा तब इसे न तो धर्म के आधार पर लागू किया जायेगा और न ही इसे धर्म के आधार पर कार्यान्वित किया जा सकता है। किसी को भी केवल इस आधार पर बाहर नहीं किया जा सकता कि वह किसी विशेष धर्म का पालन करता है/करती है।
यह सच नहीं है। एक उदाहरण लेते हैं। मैं एक ग़रीब मुसलमान हूँ। मैं भारत से हूँ। मेरे बाप-दादे भारत से हैं। लेकिन मेरे पास जन्म का कोई प्रमाण नहीं है। मुझे एनआरसी में शामिल नहीं किया जायेगा और मेरे साथ अवैध प्रवासी की तरह व्यवहार किया जायेगा, इसके बाद सीएए मुझे छाँटकर बाहर कर देगा।
मैं एक ग़रीब हिन्दू हूँ। मैं भारत से हूँ। मेरे बाप-दादे भारत से हैं। मेरे पास जन्म का कोई प्रमाण नहीं है। सीएए के तहत मैं दावा करता हूँ कि मैं पाकिस्तान से आया हूँ। प्रताड़ना के कारण मेरे सारे दस्तावेज़ पाकिस्तान में खो गये थे। मुझे भारतीय नागरिकता दे दी जायेगी।
या दूसरा उदाहरण लें। मैं एक अहमदिया मुसलमान हूँ, जो प्रताड़ना के कारण पाकिस्तान से आया। लेकिन सीएए के तहत मुझे ग़ैरक़ानूनी आप्रवासी माना जायेगा और डिटेंशन शिविर में भेज दिया जायेगा।
मैं एक हिन्दू हूँ। मैं प्रताड़ना के कारण पाकिस्तान से आया हूँ। मुझे नागरिकता दे दी जायेगी।
प्रश्न 5. एनआरसी लाकर क्या हमसे भारतीय होने का प्रमाण देने के लिए कहा जायेगा?
उत्तर : सबसे पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि एनआरसी प्रक्रिया को राष्ट्रीय स्तर पर शुरू करने की कोई घोषणा नहीं की गयी है। यदि इसे लागू किया जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि किसी से भी भारतीय होने का प्रमाण माँगा जायेगा। एनआरसी बस एक सामान्य प्रक्रिया है ताकि आपका नाम नागरिक रजिस्टर में दर्ज़ किया जा सके। जिस प्रकार हम अपना नाम मतदाता सूची में दर्ज़ कराने या आधार कार्ड पाने के लिए अपना पहचान पत्र या कोई अन्य काग़ज़ात देते है ठीक उसी तरह के काग़ज़ात एनआरसी के लिए भी देने होंगे, वह जब और जैसे लागू होता है।
ग़लत। जुलाई 31, 2019 को एक राजपत्रीय अधिसूचना जारी की गयी थी जिसमें कहा गया था कि 1 अप्रैल, 2020 से 30 सितम्बर, 2020 के बीच पूरे भारत में राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीकरण लागू किया जायेगा। यह उस जनगणना से अलग है जिसे जनगणना अधिनियम के तहत किया जाता है। एनपीआर एनआरसी नियम की धारा 4 के तहत किया जाता है। इसलिए यह एनआरसी प्रक्रिया का ही अंग है। इसमें कौन से दस्तावेज़ देने होंगे यह अभी भी स्पष्ट नहीं है इसलिए यह कहना ग़लत होगा कि इसके लिए भी वही दस्तावेज़ माँगे जायेंगे जो वोटर कार्ड या आधार कार्ड के लिए माँगे जाते हैं।
इसके अलावा ऐसी ख़बरें भी आयी हैं कि एनपीआर से जुड़े प्रारम्भिक अध्ययन पहले ही तामिलनाडु के तीन जिलों में अगस्त, 2019 में आयोजित किये जा चुके हैं।
प्रश्न 6. नागरिकता कैसे तय की जाती है? क्या यह सरकार के हाथ में होगा?
उत्तर : किसी भी व्यक्ति की नागरिकता का निर्णय नागरिकता नियम, 2009 के आधार पर किया जाता है। ये नियम नागरिकता अधिनियम, 1955 पर आधारित हैं। यह नियम सार्वजनिक तौर हर किसी के सामने होता है। ये पाँच तरीके हैं जिनसे कोई भी व्यक्ति भारत का नागरिक बन सकता है:
- जन्म से नागरिकता
- वंश द्वारा नागरिकता
- पंजीकरण द्वारा नागरिकता
- देशीयकरण द्वारा नागरिकता
- समावेशन द्वारा नागरिकता
यहाँ वही चीज़ बतायी जा रही है जो पहले से ही स्पष्ट है। लेकिन अन्तिम तौर पर तो सरकार ही यह तय करेगी कि कौन से दस्तावेज़ स्वीकार्य होंगे और कौन से नहीं। सरकारी अधिकारी ही यह निर्धारित करेंगे कि कोई विशेष दस्तावेज़ वैध है या नहीं। दस्तावेज़ असली हैं या नहीं और कोई व्यक्ति विदेशी है या नहीं, इसके बारे में फ़ॉरेनर्स ट्रिब्युनल फ़ैसला सुनायेंगे। असम में फ़ॉरेनर्स ट्रिब्युनल के अनुभव से यह पता चलता है कि बिल्कुल अनुभवहीन व्यक्तियों को न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जाता है और उन्हें यह लक्ष्य दिया जाता है कि कितनी संख्या में लोगों को विदेशी घोषित करना है। यदि यह लक्ष्य पूरा नहीं होता है तो यह गम्भीर आरोप है कि उन्हें सेवा से हटा दिया गया है। देश में दसियों हज़ार फ़ॉरेनर्स ट्रिब्युनल स्थापित करने की ज़रूरत पड़ेगी। न्यायालय में जो ख़ाली जगहें पड़ी है उन्हें तो भरा नहीं जा सका है। इन नियुक्तियों के लिए आप धन और कर्मचारी कहाँ से लायेंगे?
प्रश्न 7. क्या मुझे अपनी भारतीय नागरिकता प्रमाणित करने के लिए माता-पिता के जन्म आदि का विवरण देना होगा?
उत्तर : आपको बस अपने जन्म का विवरण जैसे कि जन्म की तारीख़, माह, वर्ष और जन्म का स्थान देना होगा। यदि आपके पास अपने जन्म का विवरण नहीं है तो आपको अपने माता-पिता के जन्म के वही विवरण देने होंगे। लेकिन माता-पिता का या उनके द्वारा कोई भी दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की कोई बाध्यता नहीं है। जन्म तिथि और जन्म स्थान से सम्बन्धित कोई भी दस्तावेज़ जमा करके नागरिकता साबित की जा सकती है। हालाँकि इस पर अभी फ़ैसला होना बाक़ी है कि ऐसे कौन से दस्तावेज़ स्वीकार्य होंगे। इनमें मतदाता कार्ड, पासपोर्ट, आधार कार्ड, लाईसेंस के काग़ज़, इंश्योरेंस के काग़ज़ात, जन्म प्रमाणपत्र, स्कूल छोड़ने का प्रमाणपत्र, ज़मीन या मकान से सम्बन्धित दस्तावेज़ या इसी तरह के अन्य दस्तावेज़ों को, जो सरकारी अधिकारियों द्वारा जारी किये गये हैं, शामिल किया जा सकता है। इस सूची में और अधिक दस्तावेज़ों के शामिल किये जाने की सम्भावना है ताकि किसी भी भारतीय नागरिक को अनावश्यक परेशानी न उठानी पड़े।
पूरी तरह ग़लत : नागरिकता अधिनियम 1955 में हुए संशोधन के अनुसार जन्म द्वारा नागरिकता इस बात पर निर्भर करती है कि आप पैदा कब हुए थे। यदि आपका जन्म 1 जुलाई 1987 से पहले हुआ है, तो यह प्रमाणित करने के लिए काफ़ी है कि आप भारत में पैदा हुए हैं। लेकिन नागरिकता अधिनियम में बाद के संशोधनों के कारण, यदि आप 1 जुलाई, 1987 से 3 दिसम्बर, 2004 के बीच पैदा हुए थे तो आपको न केवल यह प्रमाणित करना होगा कि आप भारत में पैदा हुए थे, बल्कि यह भी साबित करना होगा कि आपके जन्म के समय आपके माता-पिता में से कोई एक भारत का नागरिक था। यदि आपका जन्म 3 दिसम्बर 2004 के बाद हुआ है तो आपको यह प्रमाणित करना होगा कि आप भारत में पैदा हुए थे तथा आपके जन्म के समय आपके माता-पिता दोनों में से कोई एक भारत का नागरिक था और दूसरा अवैध प्रवासी नहीं था।
जिन दस्तावेज़ों के माँगे जाने की सम्भावना है उसके बारे में भी ग़लतबयानी की जा रही है। सबसे पहले तो यह कि सरकार को जनसंख्या रजिस्टर शुरू करने के पहले दस्तावेज़ों की एक सूची निर्धारित करने से रोका किसने है, ताकि लोगों को यह तो स्पष्ट हो जाये कि उन्हें जमा क्या करना होगा। दूसरे, यह कहना कि नागरिकता प्रमाणित करने के दस्तावेज़ों में से एक आधार कार्ड होगा, पूरी तरह से ग़लत है। आधार अधिनियम की धारा 9 यह कहता है:
आधार संख्या या उसका बाद का सत्यापन आधार संख्या धारक को स्वत: नागरिकता या निवासस्थान का कोई अधिकार नहीं देता या उसका प्रमाण नहीं होता।
प्रश्न 8. क्या मुझे 1971 से पहले की वंशावली प्रमाणित करनी होगी?
उत्तर : नहीं। 1971 के पहले की वंशावली के लिए आपको किसी प्रकार का पहचान पत्र या माता-पिता/पूर्वजों के जन्म-प्रमाणपत्र जैसे कोई दस्तावेज़ जमा नहीं करने होंगे। यह केवल असम एनआरसी के लिए ही मान्य था, जो ”असम समझौते” और माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर आधारित था। देश के बाक़ी हिस्सों के लिए एनआरसी प्रक्रिया पूरी तरह से अलग और नागरिकता (नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करना) नियम, 2003 के तहत होगी।
हालाँकि यह सच है कि असम प्रक्रिया अलग थी लेकिन सीएए से इस पर और अधिक असर पड़ेगा, वास्तव में भारत सरकार ने यह घोषित किया है असम में वे लोग फिर से पूरा एनआरसी तैयार करेंगे।
असम में चली और भारत के बाक़ी हिस्सों में चलनेवाली प्रक्रिया दोनों का मक़सद है नागरिकों की एक सूची पाना और जो इस सूची में नहीं आते उन्हें मताधिकार से वंचित कर देना। जैसा कि प्रश्न 7 के जवाब में लिखा गया है नागरिकता स्थापित करने के लिए आवश्यक मानदण्ड विभिन्न प्रकार के हैं।
प्रश्न.9 यदि पहचान प्रमाणित करना इतना ही आसान है तो एनआरसी के चलते असम में 19 लाख लोग प्रभावित कैसे हो गये?
उत्तर : असम में घुसपैठ एक पुरानी समस्या है। इस पर रोक लगाने के लिए एक आन्दोलन हुआ था और 1985 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने घुसपैठियों की पहचान करने के लिए एनआरसी तैयार करने का एक समझौता किया जिसमें अन्तिम तारीख़ (कट-ऑफ़ डेट) 25 मार्च, 1971 को माना गया।
वास्तव में, इस असम समझौते को सीएए द्वारा रद्द करने की कोशिश की गयी है। असम में भी, सभी दस्तावेज़ों के होने के बावजूद बड़ी संख्या में लोगों को ग़ैर-नागरिक घोषित कर दिया गया है। एक अर्थ में देखा जाये ( हालाँकि यह एक सीमित तर्क ही है) तो भारत के शेष भाग के मुक़ाबले असम में नागरिकता प्रमाणित करना आसान है। यदि आप यह साबित कर देते हैं कि आपने बांग्लादेश से, मान लीजिए कि 1964 में प्रवेश किया है तो आप नागरिकता के हक़दार होंगे। देश के शेष भाग में यही काफ़ी नहीं होगा। यदि आपने 26 जनवरी, 1950 के बाद पाकिस्तान से, यहाँ तक कि बांग्लादेश से भी भारत के किसी अन्य हिस्से में प्रवेश किया है तो आपको अवैध प्रवासी माना जायेगा। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो आप भारतीय नागरिक तभी माने जायेंगे जब आप भारत में पैदा हुए हों। इसलिए, यदि आपने 1964 में असम में प्रवेश किया है तो आपके लिए अपने जन्म को साबित करना ज़रूरी नहीं, बशर्ते आप यह साबित कर सकें कि आप असम में तभी से रहते आये हैं, जिसे सम्पत्ति कार्ड आदि जैसे कई दूसरे दस्तावेज़ों से साबित किया जा सकता है। परन्तु भारत के और हिस्सों में इतना ही काफ़ी नहीं होगा। बेशक, कई दूसरे मामलों में, असम में व्यक्तियों के लिए नागरिकता पाना भारत के शेष भाग की तुलना में अधिक कठिन है।
प्रश्न 10. एनआरसी के दौरान क्या हमें उन पुराने दस्तावेज़ों को जमा करने के लिए कहा जायेगा, जिन्हें इकट्ठा करना मुश्किल है?
उत्तर : ऐसी कोई बात नहीं है। पहचान साबित करने के लिए केवल सामान्य दस्तावेज़ देने होंगे। जब राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी की घोषणा की जायेगी तब इसके लिए नियम और निर्देश इस तरह बनाये जायेंगे कि किसी को भी परेशानी का सामना न करना पड़े। सरकार का अपने नागरिकों को तंग करने या उन्हें परेशानी में डालने का कोई इरादा नहीं है।
फिर ग़लत। इस जवाब का कोई आधार नहीं है जबकि नागरिकता अधिनियम 1955 का संशोधन वह मानदण्ड ही निर्धारित कर दे जिसके आधार पर आपके माता-पिता से भारत का नागरिक होने का सबूत माँगा जाये और जो इस बात पर निर्भर करता हो कि आप पैदा कब हुए। इसके बजाय यह पता लगाने के लिए कि कौन नागरिक नहीं है विदेशियों से जुड़े क़ानून को प्रभावी ढंग से लागू करना ही पर्याप्त होगा।
प्रश्न. यदि कोई व्यक्ति अनपढ़ है और उसके पास उपयुक्त दस्तावेज़ नहीं है, तो क्या होगा?
उत्तर : ऐसे मामले में अधिकारी उस व्यक्ति को गवाह लाने की अनुमति देंगे। साथ ही, उसे अन्य साक्ष्य और सामुदायिक सत्यापन आदि की भी अनुमति होगी। एक उचित प्रक्रिया का पालन होगा। किसी भी भारतीय नागरिक को अनुचित परेशानी में नहीं डाला जायेगा।
यह किस आधार पर कहा जा रहा है? जन्म को प्रमाणित करने के लिए कोई नियम निर्धारित नहीं है। आज क़ानून के तहत जो एकमात्र प्रावधान निर्धारित है वह जन्म और मृत्यु सम्बन्धी अनिवार्य पंजीकरण अधिनियम, 1969 के अन्तर्गत है। इसके अनुसार कम से कम 1969 से प्रत्येक जन्म का पंजीकरण अनिवार्य होगा। लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की भारी संख्या और शहरी इलाक़ों में कई लोग, जिसमें भारी संख्या में झुग्गी और फुटपाथ पर रहनेवाले लोग, आदि शामिल हैं, जन्म का पंजीकरण नहीं कराते। किसी नियम, विनियमन, अधिसूचना या अन्य सरकारी आदेश के अभाव में यह किस आधार पर कहा जा रहा है कि गवाहों को अनुमति दी जायेगी?
प्रश्न. भारत में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जिनके पास घर नहीं हैं, जो ग़रीब हैं और शिक्षित नहीं हैं और उनके पास पहचान का कोई आधार भी नहीं है। ऐसे लोगों का क्या होगा?
उत्तर : यह पूरी तरह सही नहीं है। वे लोग किसी आधार पर मतदान करते हैं और सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का वे लाभ भी उठाते हैं। उसी आधार पर उनकी पहचान स्थापित की जायेगी।
हमें नहीं पता कि यह किस आधार पर कहा जा रहा है। कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने से नागरिकता स्थापित नहीं हो जाती। कोई क़ानून ऐसा नहीं कहता है। इसके साथ ही यहाँ सवाल पहचान स्थापित करने का नहीं बल्कि नागरिकता साबित करने का है।
प्रश्न. क्या एनआरसी दस्तावेज़ों के साथ/ दस्तावेज़ों के बिना किसी को ट्रांसजेण्डर, नास्तिक, आदिवासी, दलित, स्त्री और भूमिहीन होने के चलते बाहर करता है?
उत्तर: नहीं एनआरसी जब भी लागू होगा उससे उपरोक्त में से कोई प्रभावित नहीं होगा।
तकनीकी रूप से कोई वंचित नहीं होगा। लेकिन ग़रीब दलित, आदिवासी, स्त्रियाँ और भूमिहीन बिना दस्तावेज़ों के या दस्तावेज़ों के साथ भी जिसमें नामों की वर्तनी में कुछ अन्तर आ गया हो कैसे यह साबित कर पायेंगे कि वे भारतीय नागरिक हैं। इस प्रकार उनकी एक बड़ी आबादी को किसी मनमाने मानदण्ड के आधार पर बाहर रखा जा सकता है।
(Feature Image Courtesy – The Siasat Daily)