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भूमि अधिग्रहण कानून, २०१३ में बदलाव – एक समीक्षा

04, Nov 2017 | राजू जाधव

मुंबई-नागपूर समृद्धी महामार्ग निर्माण के लिये जरुरी जमीन अधिग्रहण में किसानों के उग्र विरोध के चलते पूरी प्रक्रिया में रुकावट पैदा हो गई है. इससे फिर एक बार जमीन अधिग्रहण का मुद्दा सार्वजनिक चर्चा का केंद्र बन रहा है. स्वतंत्रता के पश्चात, सरकार ने विकास हेतु नियोजन के रास्ते को चुना. इसके तहत कृषी क्षेत्र की अपेक्षा, उद्योग क्षेत्र को विकास का इंजन मानते हुए बड़े उद्योगों की स्थापना के लिये विशेष प्रयास आरंभ किए गए. दूसरी तरफ सड़क, स्कूल, हॉस्पिटल, इनके निर्माण की जरुरत थी, लेकिन इन सब के लिये सबसे महत्वपूर्ण जमीन की जरुरत थी. ऐसी स्थिती में, देश के विकास के लिये जमीन देना किसानों का फर्ज है, ऐसी सबकी मान्यता थी. जवाहरलाल नेहरू के अनुसार “अगर आपको तकलीफ हो रही है, तो देश के हित में तकलीफ सहन करनी होगी.” लगभग १९९० तक इसी मान्यता का प्रभाव रहा. इसको भूमि अधिग्रहण का ‘पारंपरिक दौर’ कहा जाता है.

 

१९९१ में मुक्त अर्थ नीति स्वीकार करने के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था में काफी बदलाव लाए गए. एक एक करके सारे क्षेत्र का निजीकरण किया गया. बहुत बड़े तौर पर उदारवादी नीतियां अपनाने की वजह से विदेशी निवेश के लिये रास्ते खुल गये. इस दौर में मीडिया का विस्तार एवं विकास भी बड़े पैमाने पर होने की वजह से किसी भी आंदोलन को अपनी बात रखने का विकसित साधन मिल गया. इसका फायदा दूसरे जनआंदोलनों की तरह भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन को भी हुआ. इस दौर में ज़मीन देने के संदर्भ में किसानों पर जो नैतिक दबाव बनाया जा रहा था, उसके पीछे की पूंजीपतियों द्वारा जमीन हड़पने की चाल उजागर होने लगी. इसलिये भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के उग्र एवं व्यापक जनआंदोलन देशभर में उभरने लगे. पुणे के मान गाव का आंदोलन, सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन, प्लाचीमाडा आंदोलन, ऐसे कई सारे आंदोलन इसके उदाहरण हैं.

 

भूमि अधिग्रहण कानून, २०१३          

उपरोक्त आंदोलनों के परिणाम स्वरुप यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून में २०१३ में कुछ महत्वपूर्ण सुधार लाये. उनमे से कुछ सुधार हैं –

  • निजी प्रकल्पों को मान्यता प्राप्त करने के लिये आपद्ग्रस्त परिवारों में से कम से कम ८० प्रतिशत परिवारों की सहमति मिलना जरुरी.
  • निजी और सार्वजनिक साझा प्रकल्पों को आपद्ग्रस्त परिवारों में से ७० प्रतिशत परीवारों की सहमति मिलना जरुरी.
  • सरकार को स्थानीय शासन संस्थाओं (ग्रामसभा, नगर पंचायत) की मदद से उस प्रकल्प का सामाजिक परिणाम मूल्यांकन (Social Impact Assessment) कराना होगा.

इन सुधारों की बदौलत कुछ सकारात्मक संभावनाओं के आसार दिखाई देने लगे. जैसे कि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया में कुछ हद तक ही सही, लेकिन किसानों की सहभागिता बढ़ी. प्रायः सरकार पूंजीपतियों की तरफ झुकी हुई होती है, या यूं कहना सही होगा कि सरकार पूंजीपतीयों की पक्षपाती होती है. इसी वजह से आम तौर पर भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया में किसानों को सरकार के भेदभाव और अन्याय का सामना करना पड़ता है. सरकार, किसानों के विस्थापन में उनकी जमीन जाने की वजह से संभाव्य बेरोजगारी और कई सारे प्रश्नों को अनदेखा करती है. परिणामतः किसानों के पास मजदूरी के सिवा दूसरा कोई सहारा नही बचता. इस एकतरफा और अन्यायमूलक विस्थापन से किसानों पर न सिर्फ आर्थिक, बल्की सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते है. सामाजिक परिणाम मूल्यांकन पद्धति की वजह से पहली बार किसी प्रकल्प का सामाजिक एवं पर्यावरणीय दृष्टीकोण से उपयुक्तता जांच परखने की संभाव्यता निर्माण हुई थी. यदि कोई प्रकल्प सामाजिक एवं पर्यावरण के दृष्टिकोण से प्रतिकूल है तो उसका विरोध करने के लिये एक क़ानूनी आधार उपलब्ध हुआ था. लेकिन, निजी क्षेत्र इन संशोधन को लेकर काफ़ी नाराज़ था.

भूमि अधिग्रहण कानून २०१३ में बदलाव  

नरेंद मोदी की अगुवाई में २०१४ में बनी भाजपा सरकार ने सत्ता में आते ही जो कदम उठाये, उनमे से एक बड़ा कदम था भूमि अधिग्रहण कानून २०१३ के किसानो के हित वाले नियमों में बदलाव करना. लेकिन राज्यसभा में बहुमत के अभाव में भाजपा अपने प्रयास में कामयाब नहीं हो सकी, तो उसने संसद में एक विधेयक पारित करके उपरोक्त कानून में बदलाव लाने के अपने मंसूबों को कामयाब बनाने का प्रयास किया. इस विधेयक के ज़रिए पांच कॅटेगरीज़ बनाई गईं, जिनके अंतर्गत आने वाले प्रकल्पो को न किसी सहमती की आवश्यकता होगी न किसी सामाजिक परिणाम मूल्यांकन की. उसमें देश के सुरक्षा संबंधी प्रकल्प, ग्रामीण मूल सुविधाओ से (बिजलीकरण) जुड़े प्रकल्प, सस्ते आवास एवं गरीब लोगों के लिये सस्ते आवास से संबंधी प्रकल्प, औद्योगिक कॉरीडोर, सार्वजनिक-निजी भागीदारी में बुनियादी सुविधाओं से जुड़े प्रकल्प इनका समावेश था. अगर कोई विदेशी निवेशक सरकार के साथ मिल के विदेशी निवेश के ज़रिए सुरक्षा उत्पादन उद्योग शुरू करना चाहता है, तो उस प्रकल्प के लिये भी न किसी सहमती की जरुरत होगी, न किसी सामाजिक परिणाम मूल्यांकन की. यह विधेयक २०१३ में पारित भूमि अधिग्रहण के प्रगतिशील पहलुओं को खत्म करने के लिये उठाया गया कदम है. यह कदम न सिर्फ सरकार का किसानों की तुलना में पूंजीपतियों के लिये पक्षपात दर्शाता है, बल्कि कृषी क्षेत्र एवं किसानों के प्रति सरकार की असंवेदनशील भूमिका को भी उजागर करता है.

उपरोक्त पांच प्रकारो में से ‘सस्ते आवास’ की व्याख्या एवं अर्थ बहुत ही व्यापक तरीके से लगाकर किसानों की ज़मीनें अधिग्रहित की जा सकती हैं, और इन ज़मीनों का उपयोग बिल्डर लॉबी के जेब में डाला जा सकता है. आज बिल्डर लॉबी का विस्तार एवं प्रभाव बहुत ज़्यादा बढ़ गया है. खुद सरकार के अंदर कथित तौर पर बिल्डरों के लोग हैं और कई सारे बिल्डर ही मंत्री एवं राजनैतिक नेता बने बैठे हैं. ये लोग इस विधेयक का इस्तेमाल अपने स्वार्थ की पूर्ती के लिये करेंगे, यह बताने के लिये किसी विशेषज्ञ की जरुरत नही है.

पहले स्कूल, अस्पताल, सड़क, फैक्टरी के निर्माण के लिये ज़मीनों का अधिग्रहण किया जाता था. उस वक्त ज़मीन उतनी ही अधिग्रहित की जाती थी जितनी उस प्रोजेक्ट के लिये जरुरी होती थी. लेकिन, अब आईटी कंपनी के लिये भी कई हजार हेक्टर जमीन अधिग्रहित की जाती है, जबकि उसकी जरुरत अधिग्रहित जमीन का  केवल १५ से २० प्रतिशत ही है. बची हुई जमीन का ज्यादातर उपयोग रियल इस्टेट के लिए किया जाता है. सेज़ (SEZ – Special Economic Zone) कानून में अधिग्रहित जमीन का ३५ प्रतिशत हिस्सा आवास निर्माण हेतु किया जा सकता है ऐसी तजवीज की गई है. मोदी सरकार द्वारा पारित विधेयक में की गई तजवीज रियल इस्टेट के उद्देश पूर्ती का ही साधन मात्र है.

 

मानवाधिकार और भूमि अधिग्रहण

सामाजिक सुरक्षा, काम करना, एवं अच्छा जीवन स्तर यह मानव अधिकारों के व्याख्यानुसार सभी मनुष्योंका अधिकार है. लेकिन, उपरोक्त भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया एक विशाल जनसमूह को इस मानवाधिकार से वंचित रखती है. जमीन अधिग्रहित करते समय किसानों को आश्वस्त किया जाता है कि उन्हें अपनी ज़मीन की सही और अच्छी कीमत दी जायेगी, घर के सदस्य को नौकरी दी जायेगी, प्रकल्प के ज़रिए उस क्षेत्र का विकास होगा जिसका लाभ किसान एवं और दूसरे लोगों को भी मिलेगा.

इस तरह से किसानों को ज़मीन देने के लिये राजी करने का प्रयास किया जाता है. लेकिन, ज़मीन की ‘अच्छी’ कीमत तय करते समय भविष्य में ज़मीन की कीमत में होने वाली बढोतरी का ध्यान नहीं रखा जाता. किसानों से ज़मीन लेने के बाद कुछ ही समय में उसी ज़मीन भाव आसमान छूने लगता है, मगर किसानों को इसका कोई लाभ नहीं होता. नौकरी देते समय बहुत कम वेतन वाली नौकरी दी जाती है, जिससे पूरे घर का खर्च उठाना संभव नही होता. पहले ही किसान शादी, घर, पहले लिये हुए कर्जे इत्यादि के चक्रव्यूह में फंसा हुआ होता है. ऐसी स्थिती में ज़मीन के बदले मिली रकम वह लड़की की शादी, घर बनाना, पहले लिये कर्जे उतारना, इन्ही चीजो में खर्च कर देता है. वैकल्पिक फायदेमंद अवसर ढूंढ कर उनमें निवेश करना, उसके लिये संभव ही नही होता क्योंकि, एक तो ऐसे अवसर उसे मालूम नही होते और अगर मालूम भी हुए, तो निवेश करने के लिये उसके पास धनराशी नही रहती.

यह सही है कि विकास प्रक्रिया में गैर-कृषी प्रकल्पो के लिये जमीन की जरुरत होती है, और इस कारण किसानों से जमीन अधिग्रहित करने की प्रक्रिया अटल है. लेकिन, ज़मीन लेते समय किसान पूरी तरह से विस्थापित न हो इसका ध्यान रखना ज़रुरी है. प्रकल्प की उपयुक्तता, अपरिहार्यता की जांच की जानी चाहिये. उसके लिये निष्पक्ष और स्वतंत्र तंत्र स्थापित करनी होगी. जितनी जरुरत है उतनी ही ज़मीन का अधिग्रहण किया जाना चाहिये. ज़मीन अधिग्रहण के बाद विकसित ज़मीन का कुछ् हिस्सा भी किसानो को देना चाहिये.

अविकसित प्रदेशों में किसान और सामान्य जनता ज़्यादातर खेती पर निर्भर है. शिक्षा की कमी, दूसरे रोज़गार अवसरों का अभाव काफ़ी हद तक इसके लिये ज़िम्मेदार है. ऐसी स्थिति में अगर उससे ज़मीन छीन ली गई तो तो वह पूरी तरह से बिखर जायेगा. जमीन के बदले हाथ आया पैसा किन वैकल्पिक व्यवसायो में निवेश करे इसकी उसे जानकारी नही होती, दूसरी बात इस तरह के व्यवसाय एवं रोज़गार का अवकाश ही वहां पर बहुत सीमित होता है. परिणामतः उसको विस्थापितों का जीवन बिताना पड़ता है. इक तरह से सम्मानपूर्ण जीवन बिताने के उसके मानवी अधिकारों पर ही आक्रमण होता है. २०१३ में पारित भूमि अधिग्रहण कानून इस दमनकारी प्रक्रिया पर रोक लगाने का एक महत्वपूर्ण साधन बन सकता था. लेकिन भाजपा सरकार द्वारा लाया गया यह विधेयक, इस संभावना को पूरी तरह से समाप्त कर, पुनः एक बार किसानों को पूंजीपतियों की इच्छा अनुसार रहने के लिये बाध्य करता है.

 

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