असम NRC : खत्म हो दर्द, त्रासदी और शिकार बनाए जाने का दुश्चक्र सचिव की मेज़ से
03, Sep 2019 | Teesta Setalvad
असम में NRC की प्रक्रिया 2009 से ही शुरू हो गई थी. कोर्ट की निगरानी में यह प्रोसेस जारी था. यानी 10 साल की लंबी प्रक्रिया के बाद आखिरकार 31 अगस्त, 2019 को NRC की फाइनल लिस्ट प्रकाशित कर दी गई. लिस्ट से 19,06,657 लोग बाहर हैं. अब वे क्या करेंगे? उनके लिए क्या रास्ता बचा है.
जो 19,06,657 लोग लिस्ट से बाहर हैं उनमें से 3,70,000 लोगों ने सूची में अपना शामिल करने के लिए आवेदन ही नहीं किया. शायद ये वे हिंदी भाषी लोग हैं जो राज्य में देश के दूसरे हिस्से से आए हैं. तो कम से कम 15 लाख ऐसे लोग होंगे, जो फॉरनर्स ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाएंगे.
23 जुलाई, 2019 की एक सुनवाई के दौरान कोर्ट ने NRC को-ऑर्डिनेटर प्रतीक हजेला के उस गलत निष्कर्ष में कोई दखल नहीं दिया, जिसमें कहा गया था कि 30 जून, 1987 से पहले भारत में जन्मे लोगों को NRC में न शामिल किया जाए क्योंकि ऐसे लोगों के माता-पिता संदिग्ध वोटर ‘(Doubtfull Voter- DV)’ या घोषित विदेशी (Declared foreigner-DF) हो सकते हैं.या फिर वे वो लोग हो सकते हैं जिनकी नागरिकता के दावे फॉरनर ट्रिब्यूनल (PTF) में लंबित हों. यह साफ तौर पर भारतीय नागरिकता कानून (Indian citizenship Act,1955) की धारा 3 (1)(a) के खिलाफ है.
इस कानून की धारा 3(1)(a) के तहत कोई भी व्यक्ति जो 1950 के गणतंत्र दिवस और 30 जून 1987 के बीच भारत में पैदा हुआ है वह यहां का नागरिक है. इसके बावजूद को-ऑर्डिनेटर और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि धारा 3 के मौजूद होने के बावजूद वो 30 जून 1987 से पहले भारत में पैदा हुए लोगों को नागरिकता से बाहर कर देगा. सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश 13 अगस्त को दिया. इस संबंध में अंतिम निर्णय के लिए मामला अब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच के पास है. शुरुआती रिपोर्टों के मुताबिक NRC से जिन लोगों को बाहर रखा गया है, उनमें से 40 से 60 फीसदी लोग इसी श्रेणी में आते हैं.
अपीलें
जिन लोगों के नाम NRC की अंतिम सूची में नहीं है, उन्हें 120 दिनों के अंदर फॉरन ट्रिब्यूनल में अपनी अपीलें दाखिल करनी हैं. इन अपीलों के लिए हर शख्स को Exclusion order की सर्टिफाइड कॉपी जरूरत होगी.उसके पास NRC की सूची में शामिल किए गए दस्तावेजों की कॉपी भी होनी चाहिए. क्या अपील के लिए 120 दिनों की डेडलाइन इन दस्तावेजों तक पहुंच के बाद मानी जाएगी. क्या ये ठीक है. इस बारे में अभी स्पष्टीकरण का इंतजार है.
अपील कैसे दाखिल की जाएगी. इनका क्या तरीका होगा. इस बारे में भी अभी स्पष्टीकरण नहीं आया है. बड़ी चिंता की बात यह है कि NRC लिस्ट से बाहर किए गए लोग अपील के लिए किस जिले की अदालत में जाएंगे.वे किस फॉरनर्स ट्रिब्यूनल उनकी सुनवाई होगी. क्योंकि पूरी NRC प्रोसेस के दौराने हाशिये पर रहने वाले और गैर पढ़े-लिखे साधारण लोगों को बेहद परेशानियों का सामना करना पड़ा है. क्योंकि अब तक उन्हें नागरिक सेवा केंद्रों के चक्कर से लगाने से लेकर उन्हें 200-400 किलोमीटर दूर के केंद्रों के बार-बार चक्कर लगाने पड़े हैं. बार-बार की शिकायतों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 10 अप्रैल, 2019 को एक आदेश पारित कर इस मुद्दे पर स्पष्टीकरण दिया. लेकिन री-वैरिफिकेशन प्रोसेस के दौरान भी गरीब, मजलूम बेसहारा नागरिकों की प्रताड़ना जारी रही.
अब पूरे असम में यह चर्चा जारी है कि इतने बड़े राज्य में कहां-कहां नए फॉरनर्स ट्रिब्यूनल बनाए जाएंगे. राज्य सरकार पहले ही इन फॉरनर्स ट्रिब्नल को राज्य के ‘ छह जोनल एरिया’ में स्थापित करके इन्हें एक सीमित दायरे में स्थापित करने की कोशिश करती रही है. बहरहाल, जिन लोगों को लिस्ट से बाहर किया गया है, वे जब इसे चुनौती देंगे तो इन प्रबंधों से जुड़े मुद्दों के लिए बेहद अहम साबित होंगे.
पृष्ठभूमि
असम के लोगों के सामने मौजूदा संकट का मुद्दा बेहद जटिल है. असम में NRC प्रक्रिया के अलावा एक ‘D’ वोटर प्रोसेस भी है,जिसे भारतीय चुनाव आयोग ने शुरू किया था. D Voter का मतलब Doubtful voter यानी संदिग्ध वोटर. 1990 के दशक के मध्य में भारतीय चुनाव आयोग ने इसकी शुरुआत की थी. 1997 में तीन लाख से ज्यादा लोग रातोरात डी वोटर्स यानी डाउटफुल वोटर्स करार दिए गए. बगैर किसी जांच-पड़ताल के. (ये सुप्रीम कोर्ट और गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसलों खासकर सर्बानंद सोनोवाल 2007 और मुस्लिम मंडल 2012 केस में दिए गए फैसलों के खिलाफ है) . इसमें कहा गया है कि किसी शख्स को डी वोटर घोषित करने से पहले उचित जांच होनी चाहिए.
बाद में इस लिस्ट में कुछ डी वोटर्स और जोड़ दिए गए. कुछ लोग बाद में अपनी नागरिकता साबित करने में कामयाब रहे और कुछ नहीं. हालांकि डी वोटर्स साबित हुए कुछ लोग अब भी मताधिकार से महरूम हैं. आज तक फॉरनर्स ट्रिब्यूनल से उन्हें अपनी सिटिजनशिप साबित करने के लिए कोई नोटिस नहीं मिला है. 13 अगस्त, 2019 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद NRC की फाइनल लिस्ट से उनके बच्चों का नाम हटा दिया गया है.
अब आगे क्या होगा?
मौजूदा प्रक्रिया के तहत NRC लिस्ट से बाहर रखे गए लोगों को फॉरनर्स ट्रैवल में अपील करनी होगी. इन ट्रिब्यूनल्स में पहले से ही डी वोटर घोषित किए गए लोगों (चुनाव आयोग की ओर से घोषित डी वोटर्स) के मामले चल रहे हैं. ये वे लोग हैं जिनके नाम संदिग्ध विदेशी के तौर पर असम बॉर्डर पुलिस ने भेजे थे. 19 जुलाई 2019 को संसद में दिए गए अतारांकित प्रश्न संख्या – 3804 के जवाब में गृह राज्य मंत्री ने कहा था कि 31 मार्च, 2019 तक 1.17 लाख लोग ट्रिब्यूनल ओर से विदेशी करार दिए गए हैं. जबकि ex parte order के जरिये 63,959 लोग विदेशी करार दिए जा चुके हैं.
जिन लोगों ने खुद के भारतीय होने का दावा पेश किया और विदेशी घोषित किए जा चुके थे, उनके साथ उनके सर्टिफिकेट के नाम, उम्र और निवास स्थान में बेहद मामूली अंतर की वजह से ऐसा हुआ था. क्योंकि नियम के मुताबिक सर्टिफिकेट के नाम या निवास स्थान के नाम पर मामूली अंतर या ट्रिब्यूनल्स की ओर से मांगे गए जरूरी दस्तावेज न पेश करने पर उन्हें विदेशी करार दिया जा सकता है. NRC ने जिस तरह का अभूतपूर्व संकट पेश किया है और जिस तरह से इस मामले में शक्ति संतुलन हाशिये और गैर पढ़ी-लिखी गरीब जनता के खिलाफ झुका है, उसमें यह बेहद जरूरी हो जाता है फॉरनर्स ट्रिब्यूनल पारदर्शिता के साथ काम करें. वे स्वीकार्य और मानक प्रक्रियाओं को अपनाएं. शिकायतों के निपटारे के दौरान अपील और साक्ष्यों को पेश करने का मौका दें. इस संबंध में स्टैंडर्ड कामकाज के तरीकों को अपनाएं और एकतरफा फैसला न दें. खुला, पारदर्शी और न्यायोचित सुनवाई का अधिकार संविधान ने हर नागरिक को दिया है. इसके साथ उसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार भी मिले हुए हैं. फॉरनर्स ट्रिब्यूनल में आने वाला हर केस भारत के संविधान में किए गए इन प्रावधानों की कसौटी होगा.
सिटिजनशिप नागरिक अधिकारों की बुनियाद है और किसी को मनमाने ढंग से गैर नागरिक करार देना ‘सिविल डेथ’ के बराबर है.
पहले लिस्ट से बाहर, अब डिटेंशन और देश से बाहर करने का खतरा?
इस साल जुलाई में जब हमने सिटिजनशिप और NRC से हुई मौतों की सूची बनानी शुरू की तो पता चला कि सिटिजनशिप से जुड़े मुद्दों ने 60 लोगों की जान ले ली है. इसके बाद 31 अगस्त को खबर आई कि NRC लिस्ट में नाम न होने की अफवाह की वजह से सायेरा बेगम ने कुएं में छलांग लगा दी. बाद में पता चला कि उनका नाम तो लिस्ट में है. कुछ लोगों ने हताशा, चिंता और लाचारी में कथित तौर पर आत्महत्या कर ली. और कुछ ने डिटेंशन कैंप की यातनाओं के डर से मर जाना बेहतर समझा. फिलहाल जिन लोगों के नाम फाइनल NRC लिस्ट में नहीं है उन्हें तुरंत डिटेंशन कैंप में नहीं डाला जाएगा और न ही तुरंत वापस भेजा जाएगा. लेकिन उनके ऊपर तलवार तो लटकती ही रहेगी. लेकिन एक बार विदेशी घोषित होने के बाद एनआरसी लिस्ट से बाहर होने वाले लोग बाहर कर दिए जाने लिए डिटेंशन सेंटर में तो भेजे ही जा सकते हैं.
असम के छह डिटेंशन सेंटरों में 1100 लोग बेहद खराब हालात में बंद हैं. इस वक्त असम में छह डिटेंशन सेंटर हैं. उन्हें ग्वालपाड़ा, कोकराझार, सिलचर, जोरहाट, तेजपुर और डिब्रूगढ़ में अस्थायी तौर पर बनाया गया है. खबर है कि राज्य के अन्य हिस्सों में भी डिटेंशन सेंटर बनाए जाने हैं.
सरकार ने यह स्वीकार किया है 2013 से लेकर अब तक इन डिटेंशन सेंटरों में 25 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. दस मई, 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि डिटेंशन सेंटर में तीन साल से ज्यादा रहे लोगों को रिहा किया जाए. इस आदेश से यह साफ हो गया कि तीन साल से ज्यादा देर तक लोगों को डिटेंशन में नहीं रख सकते. फिर भी तीन साल तक और मनमाने ढंग से डिटेंशन सेंटर में रखने के फैसले पर पर तो सवाल बना ही हुआ.
बाहर भेजने के विवादास्पद मुद्दे पर थोड़ी अस्पष्टता बनी हुई है. असम की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने एक शपथ पत्र दाखिल किया था. फरवरी 2019 में दाखिल किए गए इस शपथ पत्र में स्वीकार किया गया था कि 2013 तक सिर्फ चार लोगों को डिपोर्ट किया गया था यानी वापस उनके देश में भेजा गया था. हाल में ढाका की अपनी यात्रा के दौरान विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी कहा कि NRC भारत का अंदरुनी मामला है. अब तक भारत ने ‘घोषित विदेशियों’ को वापस भेजने के बारे में बांग्लादेश से कोई बात नहीं की है. क्या इस विकल्प के अभाव में लोगों को अनिश्चित समय तक डिटेंशन में रखा जाएगा. ‘विदेशी’ करार दिए लोगों को ऊपरी कोर्ट में अपील का अधिकार होगा. लेकिन यह बहुत कठिन, लंबा और पैसा खींचने वाला विकल्प होगा. डिटेंशन का मतलब यह है कि गरिमापूर्ण जीवन और गरिमापूर्ण मृत्यु दोनों से लोगों को नकार देना.
अब इस बात की जरूरत है कि ऐसे लोगों के मामले में पूरी पारदर्शिता और प्रतिबद्धता का ऐलान किया जाए. यह बताया जाए कि लिस्ट में हटा दिए लोगों को पहले और बाद में किन प्रक्रियाओं से गुजरना होगा. क्योंकि इन प्रक्रियाओं में एक दशक तक का समय लग सकता है.
लेकिन क्या तब तक उनके बुनियादी अधिकार बरकरार रहेंगे. क्या तब राजनीतिक तौर पर उठाए जाने वाले इस मुद्दे के शोर और मीडिया की नजर की वजह से वो यह अधिकार बचाए रख पाएंगे.
असम में अब एक बड़ी आबादी के सामने राज्यविहीन होने का खतरा पैदा हो गया है. अब उनके पास राष्ट्रीयता का दावा नहीं रह गया है. साफ है राज्य विहीन लोगों के अधिकार ज्यादा खतरे में होंगे. अब रोहिंग्या लोगों के मामले में यह देख चुके हैं. भारत ने उन किसी भी अंतरराष्ट्रीय संधियों पर दस्तख्त नहीं किए हैं, जिसके तहत देशों को राज्य (राष्ट्र) विहीन लोगों से जुड़े 1954 और 1961 के समझौते के प्रावधानों का पालन करना जरूरी होता है. हालांकि अब तक के अदालती फैसलों के मुताबिक संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 नागरिकों और गैर नागरिकों दोनों पर लागू होते हैं.
इस संबंध में दो फैसलों का जिक्र बेहद जरूरी है. एनएचआरसी बनाम अरुणाचल प्रदेश, 1996 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जो अधिकार नागरिकों को हासिल हैं वही अधिकार गैर नागरिकों को भी और उनको भी जिनकी नागरिकता के बारे में पता नहीं है. 1981 में Francis Coralie vs The Admn, Union Territory of Delhi में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस देश में रहने वाले हर शख्स को शोषण से मुक्त और गरिमापूर्ण जिंदगी जीने का अधिकार है.
इसलिए NRC से जुड़े नागरिकता के संकट और असम में इसके असर को कम करने की दिशा में हमारी संवैधानिक बुनियाद और बुनियादी आजादी (जिसकी हमें संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 गारंटी देता है) हमारे नीति-निर्देश सिद्धांत होने चाहिए. असम में लिस्ट से बाहर कर दिए गए 15 लाख से अधिक लोगों की शिकायतों के निपटारे के लिए जो संस्थाएं बनाई गई हैं उन्हें इन कसौटियों पर खरा उतरना होगा. अब तक NRC (नागरिकता का मुद्दा जिस पर सहमति बन चुकी थी) और नागरिकता के सवाल पर त्रासदी, दर्द और लोगों को शिकार बनाए जाने का एक दुश्चक्र चलता आया है. अब तक इसका नासूर सूखा नहीं है. अब वक्त आ गया है इन नासूरों को खत्म किया जाए.
लेखिका सिटिजन फॉर जस्टिस एंड पीस की सेक्रेट्री हैं.
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