असम की कलह फ्रंटलाइन में प्रकाशित तीस्ता सेतलवाड़ के लेख का हिंदी अनुवाद
20, Nov 2021 | तीस्ता सेतलवाड़
भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा हाल ही में असम में ‘अतिक्रमणकारियों’ के नाम पर मुसलमानों को बेदख़ल करने का काम और उन्हें मताधिकार से वंचित करने का काम किया जा रहा है। यह मुसलमानों को बाहर निकालने और उन पर व्यवस्थित तरीके से हिंसा करने के इरादे को उजागर करता है।
28 वर्षीय मोइनुल (मयनल) हक को पहले पुलिस की गोलियों का शिकार बनाया गया। उसके बाद उसकी मौत को जिस तरह से जश्न के साथ फोटोग्राफर बिजोय बनिया के द्वारा पेश किया गया, उसे असम में एक बार फिर से फैलाई गई नफ़रत और हिंसा की गहरी उपद्रवी निशानी के तौर पर देखा जा सकता है। इस घटना से पहले 23 सितम्बर को भारी हथियारों से लैस पुलिस और प्रशासन के साथ बनिया दरांग जिले के सिपाझार राजस्व मंडल के गोरुखुटी गाँव पहुंचा था। इस गाँव में रहने वाले ग्रामीण लोग यहाँ चार दशकों से भी ज़्यादा वक़्त से इस गाँव की जमीन पर खेती करते रहे हैं। उन ग्रामीणों को एक रात 10 बजे अचानक ‘बेदख़ली’ का नोटिस भेज दिया जाता है। यह नोटिस भी व्हाट्सऐप के माध्यम से भेजा जाता है!
एक खास समूह के खिलाफ नफ़रत से प्रेरित और लक्षित हिंसा व्यापक है। यह एक ऐसे राज्य के लिए कोई नई चीज़ नहीं हैं जहाँ मुसलमानों को गेदा, अली या मियां कहा जाता है। जहाँ बिहारियों को कुली, बंगाली को बोंगाली, नेपालियों को नाक सेपेटा (चपटी नाक वाला) जैसे नस्लीय अभद्र शब्दों से आम बोल-चाल में संबोधित किया जाता है। किस अभद्र भाषा का इस्तेमाल कहाँ करना है इसका निर्धारण वक़्त, जगह, और संदर्भ की लोकप्रियता के आधार पर तय होता है। अभी इस परिस्थिति में एक मुसलमान होना राजनीतिक रूप से ज्वलंत है और इसलिए, यह अधिक प्रभावी भी है।
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वास सरमा ने हाल में ही हुए क्रूर और हिंसक हमले का स्वयं नेतृत्व किया। इतना ही नहीं बल्कि उसने इसे साम्प्रदायिक चोला पहनाने की भी भरपूर कोशिश की है। कुल मिलाकर मुख्यमंत्री और उसके साथी भाजपा के नेताओं द्वारा दरांग के बंगाली भाषी मुसलमानों को बेदख़ल करने का अभियान चलाया गया। जिसके लिए ‘शिव मंदिर के चारों ओर की जमीन को खाली करने’ (दिवंगत मंदिर पुजारी, पार्वती दास की पत्नी के साथ साक्षात्कार-पृष्ठ 17) की कहानी का प्रपंच और ढोंग रचा गया। यह शायद इसलिए भी हो रहा है क्योंकि शासन अपने अथक प्रयासों के बावजूद मुसलमानों की बड़ी जमात को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) की अंतिम सूची से बाहर निकाल पाने में विफल रहा। शासन ने भीड़ को नियंत्रित करने और विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करने के लिए मानक संचालन प्रक्रियाओं (एसओपी) और कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ाईं।
नतीजा यह हुआ कि पहले से ही बदहाल आबादी को हिंसा की मदद से उनके घरों से बाहर निकाल दिया गया। उन्हें बेहद क्रूरता और बेरहमी के साथ मारा गया और कुछ पीड़ितों के पेट और छाती पर गोलियां मार कर उनकी हत्या कर दी गई। यह बेदख़ली की घटना 20 सितंबर को बिना किसी पूर्व सूचना के अचानक शुरू की गयी। अगर उन्हें पहले से सूचना मिल गयी होती तो कम से कम उन्हें अपने सामान को इकट्ठा करने और सम्मान के साथ अपने घर को खाली करने का कुछ समय मिल जाता। आधी रात में व्हाट्सऐप के जरिये मैसेज भेजे जाने के बाद अगले दिन जिला प्रशासन भारी भरकम सशस्त्र पुलिस कर्मियों और विध्वंस दल के साथ परिवारों को हटाने के लिए पहुँच गया था।
इन जघन्य हत्याओं को लेकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उभरे गुस्से और उबाल के बावजूद राज्य के मुख्यमंत्री को किसी किस्म का कोई पछतावा नहीं हुआ। अलबत्ता उसने यह कहते हुए कि उपयुक्त परिवारों को केवल 6 बीघा जमीन दी जाएगी, दरअसल ऐसा करते हुए उन्होंने लोगों के बीच ‘अतिक्रमणकारी’ या ‘मूल निवासी’ के विभेद की मोहर लगा कर उन्हें बाँटने का काम किया है।
नेल्ली नरसंहार :
दरअसल 1970 के दशक के अंत में भाषा के नाम पर एक राजनीतिक आंदोलन शुरू हुआ था। इस भाषाई आंदोलन ने अपने भीतर नस्लीय और जातीय प्रोफाइलिंग के लिए विशेष शब्दों को विकसित किया। आज़ादी के बाद भारत के प्रथम विकसित राज्य द्वारा किया गया नेल्ली इलाके का नरसंहार देश के बाकी हिस्सों में रह रहे लोगों को आज शायद याद भी न होगा। यह 1970 के दशक के अंत में समाज के अधिक प्रभावशाली वर्गों के छात्रों की लामबंदी के फलस्वरूप पैदा हुआ। ‘बाहरी लोगों’ के खिलाफ उठा यह आंदोलन अक्सर क्रूर और हिंसक अभिव्यक्ति का स्वरुप धारण कर लेता था। इस कथित ‘बाहरी लोगों’ का बड़ा वर्ग यहाँ पर तीन पीढ़ियों से मेहनत और किसानी पर निर्भर रहता आया है। इन लोगों को औपनिवेशिक सरकार द्वारा खेती को बढ़ावा देने के लिए लाया गया था। जिसके कारण इन लोगों की आधुनिक असम की ज़मीन में गहरी जड़ें है। इस पर आज तार्किक तरीके से बहस या विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता क्योंकि लोकप्रिय सड़क छाप राजनीति की एकरसता में बारीकियों को समझने और इतिहास को समझने के लिए कोई जगह नहीं है। यह अवधि आपातकाल के बाद के भारत और एक ‘सम्मानजनक‘ राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने के साथ मेल खाती है। यह वही समय है जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा समर्थित जनसंघ भी इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति और विचारधारा को महसूस कर रहा था। अतः इसमें कोई चौकने वाली बात नहीं रह जाती है कि फिर आखिर ‘बाहरी व्यक्ति’ कैसे ‘विदेशी’ और फिर आगे ‘अवैध अप्रवासी’ और अब घुसपैठिया का रूप अख्तियार कर लिया।
18 फरवरी 1983 का दौर था और चुनाव होने वाले ही थे। यह एक ऐसा चुनाव था जिसका कि असमिया समाज का प्रभावशाली वर्ग मुखालफत कर रहा था और ‘झूठी मतदाता सूची’ के आरोप के जरिए उन्माद चरमोत्कर्ष पर था। इसका नतीजा यह हुआ कि छः घंटे के भीतर आई-पास के 14 गांवों के कम से कम 2200 बंगाली भाषी मुसलमानों का खुलेआम कत्ल किया गया।
इस घटना की जाँच के लिए आधिकारिक रूप से बनाई गई तिवारी आयोग की रिपोर्ट, जिसे 1984 में हितेश्वर सैकिया के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार के समक्ष पेश किया गया था। उस रिपोर्ट को कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया। हालांकि हत्याओं की ‘ख़बर’ को सरकारी स्वामित्व वाले ऑल इंडिया रेडियो द्वारा खारिज कर दिया गया था। परन्तु फिर भी असम और भारत में दूसरी जगहों पर रहने वाले भारतीयों को बीबीसी और वॉयस ऑफ अमेरिका की बंगाली सेवा से पता चला था कि उनके अपने लोगों यानि बंगाली भाषी मुसलमानों पर क्या कहर ढाया जा रहा है। बाद में प्रिंट मीडिया में मृत बच्चों की तस्वीरें जारी की गयी जो कतारों में अपनी गिनती होने के इंतज़ार में पड़े हुए थे। पीड़ितों को कोई न्याय नहीं मिला क्योंकि अखिल असम छात्र संघ और भारत सरकार द्वारा ऐतिहासिक असम समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद गठित असम गण परिषद (एजीपी) ने आरोप पत्र दायर किये। जिसमे 688 मामलों में से 310 मामले पर से दावा ‘छोड़ दिया’ गया।
चारों तरफ से हमला :
असम ने दशकों से अंतर-जातीय हिंसा के सिलसिलेवार घटनाओं को देखा है। यह हिंसा अक्सर उन जातीय समूह के खिलाफ अपने क्रूरतम रूप में सामने आती रही है जिन्हें आसानी से ख़ारिज किया जा सकता था। 1993 के सरकार का बोडो समझौते के वक़्त कई प्रगतिशील वर्गों के द्वारा विरोध किया गया था। क्योंकि इस समझौते ने उन्हें उन क्षेत्रों पर स्वायत्त नियंत्रण का अधिकार दे दिया जहाँ पर वे बहुमत में थे। उस समय आलोचना सही साबित हुई जब 1993 में बंगाली मुसलमानों पर हिंसक हमला किया गया और उनके घरों में आग लगाकर उन्हें बस्तियों से बाहर निकाल दिया गया। इस घटना के तीन साल बाद, संथाल और मुंडा आदिवासी समूहों, जिनमें से कई दो सदियों पहले अंग्रेजों के द्वारा लाये गए चाय बागान मजदूरों के वंशज है, उन लोगों को भी इसी तरह की जातीय सफाई के दंश का सामना करना पड़ा। वर्षों के बाद आज भी कई लोग शिविरों में सड़ रहे हैं। इसके बावजूद वे आज भी वापस घर लौटने से डरते हैं। असम ने बार-बार बोडो-बंगाली मुस्लिम हिंसा की विस्फोटक गूँज के साथ गुवाहाटी में बिहारी प्रवासी मजदूरों और झारखंडी आंदोलनकारियों पर किए गए हमलों को देखा है।
नेल्ली नरसंहार ने तीन दशक पहले ही असम आंदोलन ख़त्म हो चुका है। क्या 23 सितम्बर को राज्य द्वारा दारंग में जबरन बेदख़ली के बाद बर्बरता ख़त्म हो जाएगी। दूसरे शब्दों में या और अधिक स्पष्ट तौर पर कहें तो क्या सत्ता में बैठे लोगों की सनक, पसंद या यहाँ तक कि राजनीतिक एजेंडे के अनुसार जबरन बेदख़ली की जा सकती है? असम के भीतर हो रहे आंतरिक विस्थापन और पलायन की गंभीरता को आधिकारिक आंकड़ों के जरिए समझा जा सकता है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि 54% लोग अपने जन्म के बाद से राज्य के भीतर आंतरिक रूप से पलायन कर चुके हैं। 2001 तक भारत सरकार द्वारा लोगों की बड़ी आबादी का प्रवासन ‘पर्यावरण से प्रेरित प्रवासन‘ के कारण के रूप में दर्ज था। हालाँकि इसको 2011 के प्रवासन डेटा में प्रकाशित नहीं किया गया था।
बहुत से शिक्षाविद्द जो इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं उनका मानना है कि अंदरूनी पलायन का मूल कारण बाढ़ से होने वाली तबाही, आजीविका की असुरक्षा और भूमि का कटाव है। खास तौर पर नदी-तट के कटाव से संबंधित इस अध्ययन में 1951 के बाद से कुल भूमि क्षरण को 7-8% बताया गया है। यह अध्ययन आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा किए गए आजीविका सुरक्षा अध्ययनों के अनुरूप है।
असम अक्सर बाढ़ से भी प्रभावित रहता है। 2011-12 के एक आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार यह भी कहा गया है कि लगभग 2,034 गाँवों ने नदी के कटाव का खामियाजा उठाया है और उसके चलते 25 लाख से अधिक लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए हैं। इनमे से अधिकांश लोग नदी के किनारे बने रेत के टीले पर बस जाते हैं और छोटे किसान, दिहाड़ी मजदूर के रूप में अपना जीवन यापन करते हैं। ऐसे में उनसे किसी तरह के भूमि दस्तावेज को प्रस्तुत करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। विशेष रूप से नदी के इलाकों (जिसे स्थानीय भाषा में चार कहा जाता है) में रहने वाले लोगों के बड़े वर्ग पर अस्तित्व का संकट बना हुआ है। इस वर्ग को अब नागरिकता से वंचित (स्टेटलेसनेस) होने का खतरा एवं जबरन विस्थापन और दरिद्रता का जोखिम झेलना है।
आज की बहिष्कारवादी और मनहूस राजनीतिक स्थिति सभी को जिंदा रहने के लिए ‘अवैध अप्रवासी‘ होने का जोखिम उठाने को मजबूर करती है। साथ ही जोखिम के दलदल में फंसे समुदायों को उसके सामाजिक-सुरक्षा के ताने-बाने से मुक्त करके उसे नागरिकता के अधिकार से वंचित करना चाहती है। एक बार राजनीतिक रूप से नागरिकता के अधिकार से वंचित हो जाने के बाद बाढ़ और बाढ़ से हुए कटाव के कारण विस्थापित हुए लोगों को मुआवजे या पुनर्वास के अधिकार का दावा करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता है।
असम एक ऐसा राज्य है जहाँ पिछले दशकों के दौरान कम से कम एक तिहाई आबादी नागरिकता साबित करने के बोझ और झंझटों में दबी हुई है। भारत के उत्तर-पूर्व के सात राज्यों में असम भी ऐसे दो राज्यों में शामिल है जिसकी आबादी आदिवासी और ईसाई बाहुल्य नहीं है। साथ ही यह एक ऐसा राज्य है जिसका आंतरिक संघर्ष और लक्षित हिंसा का अपना अनूठा ही ब्रांड है, जो कि दशकों से चला आ रहा है। खासकर बंगाली बोलने वाले मेहनतकश मुसलमानों के खिलाफ इस हिंसा ने आम तौर पर वर्षों या दशकों के सार्वजनिक रूप से फैलाये गये नफ़रत और कलंकित विद्वेष को घेर रखा है। हालांकि यहाँ बंगाली भाषा बोलने वाले हिंदूओं को भी ज़्यादा पसंद नहीं किया जाता है।
पलायन का इतिहास :
1947 में केवल पंजाब और बंगाल ही नहीं बल्कि असम का भी विभाजन हुआ था। जब एक जनमत संग्रह के बाद, सिलहट जिले को असम से पाकिस्तान में स्थानांतरित कर दिया गया था। इससे पहले भी भूमि की भूख ने और औपनिवेशिक राज्य के दौर के दो शताब्दियों तक बंगाल का पलायन असम में होता रहा। लेकिन इसके बाद 1947 में और फिर 1971 में एक ऐसे क्षेत्र से ताजा पलायन हुआ जो बाद में पहले पूर्वी पाकिस्तान और फिर बांग्लादेश बन गया। हालाँकि सबसे व्यापक पलायन 19वीं शताब्दी के मध्य में विस्तृत बंगाल प्रेसीडेंसी क्षेत्र से वर्तमान के असम में शुरू हुआ था।
पूर्वी बंगाल के कई जिलों में खेती की संभावना के समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजों द्वारा बंगाली मुस्लिम किसानों को ब्रह्मपुत्र घाटी के असिंचित हिस्सों में पलायन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। 1836 से 1872 तक औपनिवेशिक सरकार ने बंगाली को असम की राज्य भाषा के रूप में थोप दिया था। उस वक़्त असम, बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था जो कभी ब्रिटिश शासित भारत का सबसे बड़ा उप खंड माना जाता था। दरअसल यह प्रशासनिक सुगमता के लिए एक औपनिवेशिक पैंतरेबाज़ी के सिवा कुछ नहीं था। लेकिन इसके बाद बंगालियों को ‘सांस्कृतिक आधिपत्य‘ के रूप में देखा जाने लगा और दोषी ठहराया गया। यह भावना तब से उभरी हुई है और महसूस की जा रही है।
1905 में बंगाल के विभाजन के बाद भी काफी बड़े स्तर पर पलायन हुआ था। 1931 की जनगणना में जनगणना अधीक्षक ने दर्ज किया था कि पांच लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके थे। सामाजिक वैज्ञानिक, राधाकमल मुख़र्जी ने खुद की रचित ‘चेंजिंग फेस ऑफ़ बंगाल’ नामक अपनी किताब में लिखा था कि 1900 से 1930 तक के दरमियान में कम से कम 10 लाख बंगाली किसान असम में चले गए और वहाँ पर नई ज़मीन को खेती के लिए उपयुक्त बनाया।
उस समय के आर्थिक इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि बंगाल से आये इन किसानों ने (जिनमें बहुत से मुसलमान थे), बहुत मेहनत की और पहले से बंजर पड़ी भूमि को खेती के लायक बना दिया। बंगाली मुस्लिम प्रवासियों को कुछ क्षेत्रों पर कब्जा करने से रोकने के लिए अंग्रेजों ने 1920 में कामरूप और नौगोंग जिलों में ‘लाइन सिस्टम’ को अपनाया। इसके बाद 1928 में, अँग्रेज़ शासक ‘उपनिवेश योजना’ लेकर आए। इस योजना के तहत बंगाली अप्रवासियों को नौगोंग जिले के बड़े क्षेत्रों में बसने की अनुमति दी गयी। ये विभाजन से पहले हुए आप्रवास के पैमाने का सबूत है।
विभाजन के बाद की राजनीति तथा विभाजन से पैदा हुई भावना ने भारत के खासतौर उत्तर और पश्चिम को अपने चपेट में ले लिया था। इसकी डरावनी गूंज को असम ने भी महसूस किया था। हालांकि, इससे काफी सालों पहले भी असम में प्रवासियों के खिलाफ आक्रोश व्याप्त था। भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 1926 में गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस की 41वें सेशन के तुरंत बाद ऊपरी असम का दौरा किया था। जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है कि ‘मयमनसिंह (बाद में पूर्वी पाकिस्तान) से असम के नौगोंग तक का इलाका आक्रोशित था। बावजूद इसके कि वे सफल किसान थे परन्तु वहाँ प्रवासियों के खिलाफ आक्रोश बहुत ज़्यादा था। ऐसा शायद इसलिए था कि वे मुसलमान थे। क्योंकि ऐसी भावना बिहारियों के खिलाफ नहीं दिखाई पड़ती है। ’(ऑटोबायोग्राफी, राजेंद्र प्रसाद, पेंगुइन इंडिया, पृष्ठ 252-253)। खाना-बदोश आबादी की बढ़ोत्तरी इस क्षेत्र में असुरक्षा और संकीर्णतावाद दोनों से ही अपनी खुराक हासिल करते हैं। असम भी उसी सांप्रदायिकता से पीड़ित है जिससे इस उपमहाद्वीप का बड़ा हिस्सा पीड़ित है।
नागरिकों को राज्यविहीन (स्टेटलेस) बनाना :
अभी भी आबादी का महत्वपूर्ण वर्ग राज्यविहीनता के संभावित खतरे से जूझ रहा है। ऐसे में राज्य सरकार द्वारा एक के बाद एक जबरन बेदख़ली का अभियान चलाना यह दर्शाता है कि राज्य अपनी नीतिगत उपकरण का प्रयोग करके एक दमन श्रृंखला शुरू करने का काम कर रही है। यह राज्य की नीति के जरिए स्पष्ट तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला एक और हथियार ही है। हालाँकि लगभग 130 लाख असमिया नागरिकों को विस्थापित करना, बेघर करना और बिना आजीविका के हाशिए पर ला देना, मौलिक रूप से असंवैधानिक और गैरकानूनी है। इस जबरन बेदख़ली का आधार केंद्र सरकार की कमेटी (ब्रम्हा कमेटी, 2018) की रिपोर्ट और असम की भूमि नीति (2019) रही है। जहाँ ब्रह्मा रिपोर्ट आंकड़ों के बिना ही अनुमानित मत को पेश कर देता है। ताकि फिर से लोगो के ज़ेहन में ‘आतंकवादी-दिमाग वाले अवैध बांग्लादेशियों के आगमन’ को डालकर लोगों में डर और उन्माद को फैलाया जा सके।
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी-दिसंबर 2018) की मसौदा सूची से 1.2 करोड़ असमियों को बाहर किए जाने के बावजूद, अंतिम एनआरसी (अगस्त 2019) में दावा और आपत्ति प्रक्रिया के पूरा होने के बाद केवल 19 लाख लोगों को ही बाहर रखा गया है। वे अभी भी नागरिकता की ‘अस्वीकृति के कारणों’ को जानने का इंतज़ार कर रहे हैं। जिसके बाद उनके साथ कानूनी चुनौती की एक पेचीदी, कठिन और महंगी प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। परन्तु इसके शुरू होने से पहले ही, केंद्र में शासित नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा 27 लाख लोगों को आधार कार्ड से वंचित कर दिया गया है। जिससे उनका रोजमर्रा का अस्तित्व एक डरावना सपना बन कर रह गया है। एनआरसी से बाहर किए गए असमियों के अलावा, भारत के चुनाव आयोग (ई.सी.आई.) और असम के निचले स्तर के अधिकारियों और असम सीमा पुलिस द्वारा क्रमशः 1,13,000 और 1,17,000 अन्य लोगों को ‘संदिग्ध मतदाता (डी-मतदाता) या ‘घोषित विदेशी/बाहरी’ करार दे दिया गया है।
2021 के अनुसार असम की कुल जनसंख्या 3.4 करोड़ है। इस जनसंख्या के एक महत्वपूर्ण हिस्से और उनके परिवारों को राज्य की नीति और लक्ष्यीकरण के माध्यम से पहले ही राज्यविहीन बना दिया गया है। जिससे उनके सिर के ऊपर तलवार लटकी हुई है। अब जबकि एनआरसी (NRC) से अपेक्षाकृत बहुत ‘छोटी’ आबादी का ही बहिष्करण हो रहा है। इससे असंतुष्ट होने के चलते अब बहस को दूसरी तरफ मोड़ा जा रहा है कि जमीन का मालिक कौन है और कौन उसका इस्तेमाल कर रहा है? एक तरह की विवादस्पद लाबेलिंग की जा रही है कि कौन मूल निवासी है या कौन मूल निवासी नहीं है। बहस इस बात पर केंद्रित करने की कोशिश की जा रही है ताकि यदि नरसंहार न भी हो तो भी बड़े पैमाने पर विस्थापन को बढ़ावा देने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। क्योंकि अब ‘लाखों अवैध अप्रवासी’ के प्रचार के पीछे जिस इतिहासवाद का इस्तेमाल किया जा रहा था वह फीका पड़ चुका है। बेदख़ली का सीधा लक्ष्य बंगाली भाषी आबादी (हिंदू और मुस्लिम दोनों) को निशाना बनाना है। क्या यह जबरन विस्थापन के माध्यम से जातीय सफाए की कोशिश की जा रही है?
23 सितंबर को असम के दरांग जिले के धौलपुर (धालपुर) में जबरन बेदख़ली का विरोध कर रहे लोगों पर पुलिस फायरिंग की गयी जिसमें एक 12 वर्षीय लड़के सहित दो लोगों को गोली मारकर हत्या कर दी गयी। इस घटना के बाद अब हम इस पर गौर फरमाएं कि इस तरह से कितनी बेदख़ली हो चुकी है (बॉक्स में देखें)। किसे विस्थापित किया गया है और क्या बेदख़ल परिवारों में से किसी को स्थानांतरित या पुनर्वासित भी किया गया है? सरकार इन जमीनों पर गोरुखुतु नाम की एक विशाल कृषि परियोजना शुरू करने का इरादा रखती है।
भूमि नीति :
असम समझौते का नतीजा यह हुआ कि नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (NRC) गणना की जटिल प्रक्रिया का आगाज़ हुआ। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे कितने ही नेक इरादे से क्यों न शुरू किया गया हो लेकिन न्यायिक उदासीनता, नौकरशाही के भ्रष्टाचार और उदासीनता की वेदी पर चढ़ाकर इसे विकृत कर दिया गया है। वर्तमान परिस्थिति में 2018 की ब्रह्मा समिति की रिपोर्ट और 2019 की असम भूमि नीति वे हथियार रहे हैं जिसने सरकार, पुलिस और प्रशासन को अपने ही लोगों का दुश्मन बना दिया है।
अक्टूबर 2019 में राज्य सरकार द्वारा नई अधिनियमित भूमि नीति को लाया गया। इस नीति ने असम भूमि नीति-1989 को पूरी तरह से बदल दिया है। इस नई नीति के तहत भूमिहीन ‘मूल निवासीयों’ को घर बनाने के लिए आधा बीघा ज़मीन के अलावा तीन बीघा (43,200 वर्ग फुट) कृषि भूमि देने का वादा किया गया। जबकि यहाँ चालकी से ‘मूल’ शब्द को परिभाषित करने का कोई भी प्रयास नहीं किया गया। नई भूमि नीति दस्तावेज के मसौदे के लिए पूर्व सी.ई.सी. हरि शंकर ब्रह्मा की अध्यक्षता में बनी ‘कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ लैंड राइट्स ऑफ़ द इंडिजेनस पीपल ऑफ़ असम’ अर्थात ‘असम के मूल निवासियों के भूमि अधिकारों को संरक्षण के लिए समिति’, ‘1989 की भूमि नीति’ और ‘2016 की भूमि नीति’ के सिफारिशों पर आधारित है। इसको राजस्व और आपदा प्रबंधन विभाग के अधिकारियों द्वारा तत्कालीन मुख्यमंत्री सरबंद सोनोवाल के कार्यालय में वरिष्ठ अधिकारियों से परामर्श के बाद तैयार की गया था।
मूल निवासी कौन है या कौन नहीं है, यह मुद्दा न केवल जटिल है बल्कि विवादित भी है। विशेष रूप से असम में अपने विविधता वाली आबादी और प्रवास की कई लहरों के कारण यह और भी विशिष्ट बन जाता है। आज का जो असम है उसका कई हिस्सा पहले अन्य प्रान्तों में था। उन इलाकों की सांस्कृतिक निष्ठाएं भी काफी अलग हैं। इतना ही नहीं बल्कि इन इलाकों में बोली जाने वाली बंगाली भी विशिष्ट स्थानीय बोली के रूप में भिन्न तरह की है। जिसे कोलकाता के भद्रलोक द्वारा नहीं समझा जा सकता है। इस इतिहास और इसकी शुरुआत को समझने के लिए 2014 के बाद के भारत और 2016 के बाद के असम की सच्चाई से रूबरू होना होगा।
आज जब आरएसएस द्वारा निर्देशित संकीर्ण वर्चस्ववादी नजरिए से एक क्रूर बहुसंख्यकवादी और आधिपत्यवादी राजनीतिक ताकत का शासन चलाया जा रहा है, ऐसे में यह संभावित विस्फोटक राजनीतिक स्थिति को और भी ज़्यादा विकृत रूप से प्रभावित करता है। इसी परिदृश्य में ब्रह्मा समिति की रिपोर्ट और उसके बाद की 2019 की भूमि नीति को समझने की जरूरत है।
ब्रह्मा कमेटी रिपोर्ट :
राज्य की भूमि नीति को देखने और ‘असम राज्य के मूल लोगों के भूमि अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए’ बहुत ही स्पष्ट शर्तों के साथ सात सदस्यीय ब्रह्मा समिति का गठन किया गया था। हालाँकि इस कमेटी को यह परिभाषित करने की कोई जरूरत नहीं थी कि कौन मूल निवासी है या नहीं है। इस कमेटी को केवल राज्य की भूमि नीति में परिवर्तन और संशोधन का सुझाव देना था। परन्तु पैनल ने अपनी विवादास्पद परिभाषा पर पहुंचकर स्पष्ट रूप से अपनी लक्ष्मण रेखा को पार कर लिया।
1951 की जनगणना रिपोर्ट और संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप स्थापित पिछली परिभाषाओं को खारिज करते हुए, ब्रह्मा समिति ने शर्त रखी कि किसी भी व्यक्ति को मूल असमिया होने के लिए जरुरी है कि उसे ‘कई पीढ़ियों’ से राज्य का निवासी होना होगा और उसका संबंध किसी ऐसी ‘प्राचीन जनजाति / जातीय कबीले’ से होना चाहिए जिसकी उत्पत्ति असम में हुई हो। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में जिस तरह का तर्क दिया है वह राज्य के गृह और भूमि और राजस्व विभाग की राय से इतेफाक नहीं रखती है। ब्रह्मा समिति ने 1951 की जनगणना रिपोर्ट में दी गयी ‘मूल निवासी’ की उस परिभाषा को ख़ारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि कोई भी व्यक्ति जो ‘असम से संबंधित’ है और राज्य में बोली जाने वाली किसी भी भाषा और बोली को बोलता है, उसे मूल निवासी माना जाना चाहिए।
इस व्याख्या के अनुसार किसी भी भूमिहीन भारतीय को जो कि असम का स्थायी निवासी होगा उसको अपनी भूमि का अधिकार होना चाहिए। भारतीय संविधान में इस बात की कोई परिभाषा नहीं है कि कौन मूल निवासी है अथवा नहीं है। हालांकि अनुसूची V, VI और IX के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के क्षेत्रों और ज़मीन की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान दिए गए हैं। ऐसा लगता है मानो यह रिपोर्ट पूरी तरह से अतिशयोक्तियों से भरी हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कोई भी (मूल) व्यक्ति को ‘अपनी जातीय, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान को बचाने के लिए प्रतिबद्ध’ होना चाहिए। इसके साथ ही यह विश्वास होना चाहिये कि ‘उसकी संस्कृति, भाषा और पहचान उसकी भूमि पर रहने वाले दूसरे लोगों से अलग है।’
ब्रह्मा कमेटी की रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि भारत के किसी दूसरे राज्य का कोई भी व्यक्ति यदि ‘अपने मूल राज्य’ की भाषा बोलता है और ‘अपनी मूल संस्कृति को बनाए रखता है तो उसे असम का मूल निवासी नहीं माना जा सकता है।
नीति की रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर यह भी कहा गया है कि ‘सरकारी भूमि के आवंटन / निपटारे को प्राप्त करने की पात्रता सिर्फ अतिक्रमण के जरिये कब्जा करने के ही मानदंड से तय नहीं होगा।’ (खंड 1.14)। ऐसी व्याख्या न केवल बहुत जटिल है बल्कि यकीनी तौर पर गैरकानूनी भी है। क्योंकि ऐसी भूमि के स्वामित्व, कब्जे और खेती के अधिकार के सवाल पर खेती करने वाले और उस ज़मीन पर जनजातियों के अधिकारों से संबधित व्याख्याएं दी जाती हैं। इस ज़मीन को अक्सर ‘आम’ कहा जाता है। अजीबो-गरीब तरीके से ऐसी भूमि को सरकार मानती है कि उसके ‘मालिक’ वे हैं।
अंततः कमेटी ने निष्कर्ष निकाला है कि ‘मूल लोगों के भूमि अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने’ के लिए जरुरी है कि राज्य के द्वारा कृषि भूमि का हस्तांतरण ‘मूल’ लोगों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए।
गौरतलब है कि असम के गृह मंत्रालय विभाग ने इस निष्कर्ष का विरोध करते हुए 2017-2018 में सुझाव दिया था कि 1951 की एनआरसी को उन मूल लोगों के लिए आधार माना जाये, जो अलग जाति, समुदाय और धर्म के बावजूद भी उस दस्तावेज़ का हिस्सा थे। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और स्पष्ट रूप से दशकों से खलनायक बनाए गए और एक लक्षित आबादी पर निशाना साधने की दृष्टि से अब शस्त्रागार से ‘मूल’ नाम का नया परिष्कृत उपकरण ईजाद कर लिया गया है। इसके अलावा और भी कई विशिष्ट लक्ष्य हैं।
चार इलाके के मुसलमानों पर हमला
184 पन्नों की ब्रह्मा समिति की रिपोर्ट (जिसे सदस्यों के बीच कुछ मतभेदों को देखते हुए दो संस्करणों में राज्य सरकार को प्रस्तुत किया गया था) का बड़ा हिस्सा चार नदी क्षेत्र, बंगाली-मुस्लिम बहुल ब्रह्मपुत्र नदी की रेत से संबंधित है। रिपोर्ट में बताया गया है, ‘जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, सभी चार, चाहे वे नए हों या पुराने- भूमि हथियाने वाले अवैध बांग्लादेशियों के चंगुल में हैं। यह हरे-भरे चारागाह (जिसमे कि चार के आगे के भी अतिक्रमण के नए इलाके हैं) की तलाश में भ्रमणशील परिंदों की तरह जगह-जगह भटक रहे हैं।’ इसमें कहा गया है कि खाली करवाई गयी जमीन को ‘मूल निवासियों’ को आवंटित किया जाना चाहिए या ‘पर्यावरणीय उद्देश्यों’ के लिए खाली रखा जाना चाहिए।
यह एक तरह से गलत और गैरकानूनी अवलोकन और सिफारिश भी है। इसमें कहा गया है : ‘अवैध बंगलादेशियों जिनकी काफी बड़ी तादात होने का अनुमान है। इन अवैध बांग्लादेशियों को उचित समय पर उनके आवश्यक निर्वासन के लिए निरोध शिविर में स्थानांतरित कर दिया जाना चाहिए और बेदख़ली के बाद खाली होने वाली ज़मीन को पूर्ण सुरक्षा के घेरे में रखकर भूमिहीन मूल निवासियों को पाम की खेती करने के लिए बसाया जाना चाहिए। ताकि फिर से अतिक्रमण और संभावित कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा नहीं हो। अथवा पर्यावरणीय कारणों से खाली करवा लिया जाना चाहिए।’ (पृष्ठ 73 खंड 1.11)।
इस तरह से अपने मूल जनादेश को लागू के बजाय, नई शासन व्यवस्था के तत्वावधान में गठित इस समिति ने स्पष्ट रूप से वैध स्थानीय आबादी का अवैध विस्थापन किया है और उनको उनके मताधिकार के औचित्य से वंचित करने की कोशिश की है। चार (नदी) क्षेत्र में रहने वाले लगभग 35 लाख लोगों में से 95% मुसलमान हैं। उन लोगों के पास ज़मीन का पट्टा (ज़मीन का कानूनी दस्तावेज) नहीं है क्योंकि उनकी खुद की ज़मीन अक्सर आंशिक रूप से या पूरी तरह से नदी में डूब जाती है। इसके अलावा 35 लाख की बड़ी मुस्लिम आबादी नदी क्षेत्र के बाहर लेकिन सरकारी ज़मीन, जो मियाद के आधार पर दिया गए ज़मीन का पट्टे या चरागाह (चराई) और वन भूमि पर रहती है। यह आबादी सीमांत (छोटी) खेती के जरिए और मछली पकड़ने का काम करके अपना गुजर-बसर करती है। यह स्थिति केवल असम के मुसलमान की नहीं है बल्कि बंगाली हिंदू की भी है। जिन्हें विशेष रूप से असम में ‘मूल निवासी’ की परिभाषा के पुरावलोकन के दायरे से बाहर रखा गया है। इनकी जिंदगी भी आज के दिन बहुत असुरक्षित है। चरागाह भूमि, आदिवासी बेल्ट और राज्य के मुहाने पर स्थापित विभिन्न रिफ्यूजी कॉलोनी में रहने वाले लगभग 60 लाख बंगाली हिंदुओं को भी अब बेदख़ली का सामना करना पड़ेगा।
राज्य में भाजपा की लगातार दो सरकारों ने, ब्रह्मा समिति की रिपोर्ट में रखी गई इस दोषपूर्ण नींव को आधार बनाकर बंगाली भाषी लोगों और कुछ मामलों में असम में राजबोंग्शी और अन्य जनजातियों के द्वारा जिस खेती करने योग्य ज़मीन को जोता जा रहा था उसे जबरन जब्त कर लिया है। यह स्पष्ट रूप से उन बंगाली भाषी आबादी पर एक और हमला है जो कम से कम 1800 के दशक के मध्य से असम के भौगोलिक क्षेत्र के निवासी रहे हैं। विवादास्पद 2019 भूमि नीति के साथ ‘ब्रह्मा समिति के कार्यान्वयन’ की सिफारिशें लागू होने से संभावित रूप से लगभग 70 लाख असमिया मुसलमानों और 60 लाख बंगाली भाषी हिंदू आबादी को राज्य की नदी, चारागाह और वन क्षेत्रों से आसानी से हटाया जा सकता है। यदि इस नीति का कार्यान्वयन जारी रहता है तो राज्य में हाशिए पर पहुँच चुके एक करोड़ तीस लाख की आबादी को उनके मूल मानवाधिकार, जीवन का अधिकार, कानून के समक्ष समानता और बिना किसी भेदभाव के जीने के अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा। अतः यह कहा जा सकता कि आज उत्तर-पूर्वी राज्य असम की एक भूमि नीति है जो जाति, जातीयता, और भाषा के आधार पर भेदभाव करती है। इस तरह यह नीति अनुच्छेद 15,14, 21 का उल्लंघन भी करती है। जो लोग दशकों से असम में रह रहे हैं और जिनके पास खुद को निवासी साबित करने के लिए दस्तावेज भी हैं। अफ़सोस वे अपनी जमीन के मालिक नहीं हो सकते हैं। इस स्थिति को और बिगाड़ने के लिए जुलाई 2021 में नवनियुक्त मुख्यमंत्री ने राज्य के मूल समुदायों की परेशानियों को दूर करने के लिए ‘मूल आस्था और संस्कृति विभाग’ नाम से एक नए विभाग की घोषणा की। जिसमें कुछ को तो शामिल किया गया और कुछ को छोड़ दिया गया है।
राभा, बोरो, मिसिंग, मोरन और मटक जैसी जनजातियों का जिक्र ‘समृद्ध विरासत’ के संदर्भ में उन्होंने किया। परन्तु उन्होंने ताई अहोम, कोच राजबोंगशी, चुटिया और चाय जनजातियों सहित सभी दूसरी जनजातियों को छोड़कर मोरन और मटक जनजातियों को ही चुना। यह मुद्दा भाजपा द्वारा (लगातार दो चुनावी घोषणा पत्रों में) उन्हें अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने के अधूरे चुनावी वादे से भी जुड़ा हुआ है। यह न केवल कुछ विशिष्ट सामाजिक कल्याणकारी लाभ को सुनिश्चित करता है बल्कि 2006 के वन अधिकार अधिनियम, भूमि का अधिकार और अधिकार कानून की मान्यता की तरफ भी हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
असम के मूल लोगों के एक वर्ग को सुरक्षा प्रदान करने की आड़ में (कौन सा वर्ग अभी भी स्पष्ट नहीं है), ब्रह्मा कमेटी रिपोर्ट द्वारा समर्थित 2019 भूमि नीति के जरिए जानबूझकर अन्य विशिष्ट समुदायों को बाहर किया जा रहा है। यह सब कुछ ‘व्यक्तिगत या अपरिवर्तनीय’ विशेषताओं के आधार पर किया जा रहा है। व्यक्तिगत आस्था या जनजाति जिसमें व्यक्ति का जन्म या स्थान होता है, वह व्यक्तिगत स्वायत्तता और व्यक्तिगत आत्मनिर्णय के केंद्र में होता है। व्यक्तिगत विशेषताओं के आधार पर यह नीति जिसे वे बदलने या संशोधित करने की स्थिति में नहीं हैं, ऐसे परिवारों के लिए यह नुकसानदेह है।
यह न केवल भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 और 15 का मौलिक रूप से उल्लंघन करता है बल्कि यह उभरते मौलिक अधिकार न्यायशास्त्र के लिए क़ानूनी जद से बाहर या खिलाफ में ला खड़ा करता है। प्रसिद्ध नवतेज जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) मामले इसका जाना माना उदाहरण रहा है। यहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने पैरा 27 में कहा है, ‘…कि अनुच्छेद 14 में मूल्यों पर आधारित एक ताक़तवर कथन है। जिसमें कानून के समक्ष समानता और कानूनों का समान संरक्षण का सार दिया गया है। इसका औपचारिक वर्गीकरण कर देने से शायद राज्य कार्यवाही में मनमाने तरीके के खिलाफ सुरक्षा के रूप में समानता के सही मूल्य को याद किया जा सकता है। जैसा कि हमारा संवैधानिक न्यायशास्त्र स्वतंत्रता और समानता की वास्तविक सामग्री को पहचानने की दिशा में विकसित हुआ है। अनुच्छेद 14 उसकी मूल वर्गीकरण की छाया से निकला हुआ अनुच्छेद है। अनुच्छेद 14 में स्वतंत्रता और गरिमा के संदर्भ में पर्याप्त सामग्री है, जिसके आधार पर संविधान की इमारत का निर्माण किया गया है। सीधे शब्दों में कहें तो उस रूप में यह मानव प्रयास के हर पहलू और मानव अस्तित्व के हर पहलू में व्यक्ति के साथ उचित व्यवहार सुनिश्चित करने की खोज को दर्शाता है।’
इस जनादेश के मायने को समझने के लिए जरुरी है कि असम में संकटग्रस्त और लक्षित लोगों, संवैधानिक मूल्यों और उनका उभार तथा समृद्ध सार को राज्य में लागू नीति के जरिये गहराई तक उतरने की जरूरत है। आज हम जो देख रहे हैं वह एक कटु विरोधाभासी नीति है जहाँ राज्य पहले हिंसक रूप से मारने के लिए, फिर मताधिकार / नागरिकता के अधिकार से वंचित करने और बहिष्कृत करने के लिए क्रूर बल का उपयोग करता है।
बेदख़ली का हालिया इतिहास
दरांग के अलावा शिवसागर, नगाँव, मारीगाँव, कामरूप, कामरूप (मेट्रो), बारपेटा, धुबरी, लखीमपुर, जोरहाट, नलबाड़ी, विश्वनाथ, चराईदेव, होजई, गोलपारा, सोनितपुर, गोलाघाट में भी बेदख़ली अभियान चलाया गया है। 6 अगस्त 2021 को चेंगा के विधायक अशरफुल हुसैन के द्वारा असम राज्य विधानसभा के समक्ष उठाये गए एक सवाल के जवाब में राजस्व और आपदा प्रबंधन मंत्री के द्वारा 2016 के बाद का बेदख़ली विवरण के संदर्भ जानकारी प्रदान की गई थी। बारपेटा में, बारपेटा राजस्व मंडल के धनबंदा गाँव के गौरीझार, गनक्कुची गाँव के गौ अभ्यारण्य, सांकुची गाँव से सरकारी जमीन, मेतीकुची गाँव से नदी के पास की सरकारी जमीन और जाति गाँव की सड़क के किनारे की सरकारी जमीन खाली कराने के लिए बेदख़ली की गयी। इसी तरह से चेंगा राजस्व मंडल के अंतर्गत बहोरी गाँव से श्री श्री हरिदेव सत्रा की ज़मीन, बरनगर राजस्व मंडल के सतभोनी के तुप गाँव के श्मशान की 5 बीघा ज़मीन, बारपेटा नगरपालिका के कताझार पटार गाँव में जल निकास और कलगछिया राजस्व मंडल के शाऊपुर गाँव के तीतापानी मौजा से आदर्श विद्यालय के छात्रावास के लिए आवंटित 20 बीघा ज़मीन की गयी है। हालाँकि, जिन परिवारों को बेदख़ल किया गया है उनमें किसी को भी पुनर्वास के लिए कोई मुआवजा या ज़मीन नहीं दी गयी है।
दरांग जिले के, फुहुर्तुली, हिलोइखुंडा, पनियाखत, शापोवतारी, गोमिश्किया पोथर, खटोर पोथार, केकुरुवा, बागपोरी चापोरी, नंबर 1 गढ़ोवा, नंबर 3 धौलपुर, दरगाँव टाउन, बेचिमरी, कुरुवा छपरी, दक्षिण कुरुवा, मंगलदोई टाउन, नेच लोगजन, बरोगोला और दर्गओं खुटी में ज़मीन खाली करने के लिए बेदख़ली प्रक्रिया को लागू किया गया। हालांकि, बेदख़ल किए गए लोगों में से किसी को भी मुआवजा नहीं दिया गया है।
होजई में ‘अतिक्रमणकारियों’ की बेदख़ल प्रक्रिया को लागू करने के बाद 3,000 से अधिक बीघा ज़मीन को खाली कराया गया था। यह कहा गया कि बेदख़ल हुए लोगों को ही उनके ‘नागरिकता के आधार पर’ वह भी ‘सही समय आने पर’ पर जमीन दी जाएगी।
लखीमपुर जिले के उत्तरी लखीमपुर, नौबोइचा, बिहपुरिया, नारायणपुर, कदम और शवांशिरी में बेदख़ली कार्यक्रम को अंजाम दिया गया। यहाँ भी न मुआवजा दिया गया और न ही पुनर्वास के लिए कोई ज़मीन ही दी गई।
नगाँव के कई राजस्व मंडल से सरकारी ज़मीन से लोगों को हटाने के लिए बेदख़ली अभियान चलाया गया। रोहा राजस्व मंडल के अंतर्गत आने वाले चरही नानके में, धींग राजस्व मंडल के हार्बर, चिरमोला एवं डांगोरी तालाब और बेचामारी में इस कार्यवाही को अंजाम दिया गया। इसी तरह से सदर राजस्व सर्किल के अंतर्गत आने वाले धूपगुड़ी, दतोदराबा, बरहिचा सतरा, अत्युयातिका पोखर क्षेत्र में, और कलियाबोर राजस्व सर्किल के बंदरदूबी के अलावा पल्खुवा, देउचुर चांग, झोखोलाबंदा टाउन और गरुबंधाथ में भी बेदख़ली कार्यक्रम को चला कर लोगों को विस्थापित किया गया। यहाँ धींग मंडल के अंतर्गत आने वाले 12 परिवारों को पुनर्वास के लिए एक काटा ज़मीन दी गयी। (काटा ज़मीन मापन की स्थानीय इकाई है। एक काटा लगभग 2880 स्क्वायर फीट के बराबर होता है)।
शिवसागर में, शिवासागर नगर महल, मेटेका बोंगाँव, बेटबारी, कुवरपुर और जाकाइचुक मौजा, जयसागर गाँव के अमगुरी राजस्व सर्किल के तहत पोहुगढ़ में ज़मीन बेदख़ली का अभियान चलाया गया। इसी तरह से रुद्रसागर गाँव के ऐतिहासिक रुद्रसागर से, शालगुड़ी गाँव को अली कहोर से अलग किया गया। मोहन हजारिका अली काश की जमीन पर अवैध कब्जा, फुकनफुड़िया गाँव का ऐतिहासिक गौरीसागर तालाब और नामदांग कुमार गाँव से नामदांग नदी के पास की जमीन पर कब्जा किया गया। अब तक भूमि के पुनर्वितरण के नाम पर 12 भूमिहीन परिवारों को 2 काटा ज़मीन आवंटित की गई थी।
सोनितपुर में तेजपुर, थेलामारा, ढेकियाजुली, चारिदुवार और लाडुवार में बेदख़ली की गई। लेकिन न तो मुआवजे का भुगतान किया गया और न ही यहाँ से बेदख़ल परिवारों के पुनर्वास के लिए जमीन की कोई पेशकश ही की गई।
अब यह स्पष्ट हो जाता है कि पिछले पांच वर्षों में जब से भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने पहली बार असम की सत्ता पर कब्जा किया है, तब से आज तक हजारों बीघा ज़मीन को तथाकथित ‘अतिक्रमणकारी’ शब्द से नवाजे जाने वाले परिवारों को बेदख़ल करने के बाद, केवल कुछ दर्जन भर परिवारों को ही पुनर्वास के उद्देश से ज़मीन दिया गया है।
हाल की कुछ घटनाओं की यदि बात करें तो, बेदख़ली अभियान का मुख्य उद्देश मुस्लिम समुदाय के लोगों को लक्षित करना ही दिख रहा है। कुछ हालिया उदहारण इस प्रकार है :
17 मई,2021- सोनितपुर जिला में दिघली चपोरी, लालेतुप, भरकी चपोरी, भोइरोबी और बैतामारी गाँव से 25 परिवारों को बेदख़ल किया गया। यह बाढ़ ग्रस्त नदी क्षेत्र है।
6 जून, 2021- होजई जिले के काकी में 74 परिवारों को बेदख़ल किया गया। यहाँ करीब 80 फीसदी आबादी मुस्लिम की है।
7 जून, 2021- दारांग जिले के ढलपुर, फुहुर्तुली से 49 परिवारों को निकाला गया। एक परिवार को छोड़कर सभी मुसलमान हैं।
7 अगस्त, 2021- धुबरी जिले के आलमगंज से 61 परिवार को बेदख़ल किया गया। यहाँ की 90 फीसदी आबादी मुस्लिम है।
20 सितम्बर, 2021- दरांग जिले के ढलपुर के फुहुरातोली से लगभग 200 परिवारों को निकाला गया।
(लेखिका cjp.org.in के फील्ड वर्कर्स की टीम, क़ानूनी शोधकर्ता और लेखकों के योगदान को सहृदय स्वीकार करती हैं। निश्चित ही, इनके अथक प्रयासों के बिना यह काम संभव नहीं होता)।
इस लेख का मूल अंग्रेजी भाषा संस्करण यहां पढ़ा जा सकता है।
*सीजेपी असम टीम द्वारा फीचर इमेज: ढालपुर में असम पुलिस फायरिंग में मारे गए मोइनुल हक का परिवार।