ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फ़ॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) की सदस्य रोमा ने 20 जून 2018 को सीजेपी की सचिव तीस्ता सेतलवाड़ के साथ संयुक्त रूप से एक शिकायत दर्ज कराई थी. इस शिकायत के सम्बन्ध में 20 सितंबर 2018 को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) से एक जवाब प्राप्त हुआ. ये शिकायत, उत्तर प्रदेश (यूपी) के सोनभद्र के लिलासी गांव में पुलिस द्वारा बरती जा रही क्रूरता और उत्पीड़न की घटनाओं के बाद दायर किया गया था. NHRC ने जो जवाब दिया था उसके प्रतिउत्तर में रोमा ने NHRC को एक विस्तृत उत्तर भेजा है, कुछ तथ्यों का उल्लेख करते हुए कि सम्बंधित मामले में NHRC का हस्तक्षेप कैसे अपर्याप्त रहा है, और इस क्षेत्र में आदिवासियों के उत्पीड़न और शोषण करने वालों पर NHRC ने किसी भी तरह की रोक या टिपण्णी नहीं की है.
18 मई 2018 को पुलिस ने लिलासी गांव के कई ग्रामीणों को हिरासत में लिया और एक दिन के बाद उन्हें छोड़ दिया. बाद में 22 मई 2018 को पुलिस-बल गांव में प्रवेश कर गए और ग्रामीणों, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों तक के साथ क्रूरतापूर्ण बर्ताव किया और उन्हें बहुत मारा पीटा गया, जिसमे कई ग्रामीण घायल हो गए थे. इसके अलावा, वन अधिकार समिति (FRC) प्रमुख किस्मतिया गोंड, AIUWP की कार्यकारी समिति की सदस्य सुकालो गोंड, सुखदेव और कई अन्य आदिवासियों को गिरफ़्तार कर लिया गया. फ़र्ज़ी आरोप लगाकर मनगढ़ंत मामले दर्ज किए गए. कई महीनों तक अवैध रूप से कैद में रखने के बाद किस्मतिया और सुखदेव को ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. सुकालो अभी तक कैद में हैं, उनकी रिहाई की जद्दोजहद जारी है. सीजेपी द्वारा दायर की गई हबीयास कॉर्पस याचिका ने उन्हें न्यायिक राहत प्राप्त करने मदद की,जिसके बाद अदालत में उनकी ज़मानत के लिए आवेदन दर्ज किया गया है.
सीजेपी गंभीरता से इस बात पर नज़र रखे हुए है कि कैसे सोनभद्र के आदिवासियों को व्यवस्थित रूप से धमकाया व परेशान किया जा रहा है. उनमें से कई के ख़िलाफ़ झूठे और बेबुनियाद आरोप लगाकर फ़र्ज़ी मुकदमे दायर भी किये गए हैं. हम अदालत में मानवाधिकार रक्षकों के लिए लड़ रहे हैं, और इस क्षेत्र में संस्थागत तरीके से रोज़-रोज़ होने वाली हिंसक घटनाओं के विरुद्ध हस्तक्षेप भी कर रहे है. हमारे इन प्रयासों का समर्थन करने के लिए कृपया उदारता से दान करें.
वन अधिकार अधिनियम 2006 के प्रावधानों के तहत, जैसे-जैसे आदिवासी सजग होकर वन भूमि पर सामुदायिक संसाधन अधिकार के दावे दर्ज कर रहे हैं, वैसे-वैसे आदिवासियों पर होने वाले आत्याचार की घटनाएं भी बढ़ती ही जा रही हैं, और न सिर्फ़ बढ़ती जा रही हैं बल्कि सुव्यवस्थित तरीके से घातक भी होती जा रही हैं.
NHRC जांच: अपूर्ण और महत्वहीन
NHRC की जांच प्रक्रिया पर अपनी प्रतिक्रिया में रोमा ने बताया कि जांच की ज़िम्मेदारी जिस संस्था को दी गई थी, पूर्व में उसी के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराई जा चुकी है. रोमा ने कहा
हमने यहां पुलिस की कार्यप्रणाली के ख़िलाफ़ शिकायत की थी जिसकी जाँच का ज़िम्मा पुलिस को ही सौंप दिया गया” वो आगे कहती हैं “ये अपने आप में विरोधाभासी है. और इससे ये खुले तौर पर स्पष्ट हो जाता है कि इस तरह की जाँच से न तो दमन करने वालों की सच्चाई सामने आएगी, और न ही पीड़ित लोगों को न्याय मिल पाएगा.”
शिकायत पत्र और NHRC के जवाब में चार महीने का समय अंतराल था. इस विलम्ब के बारे में चिंता ज़ाहिर करते हुए रोमा कहती हैं “इस विलम्ब के कारण हमारा शोषण करने वाली शक्तियां अपने कुकृत्य के लिए प्रोत्साहित होंगी. क्योंकि वे जानते हैं कि NHRC ऐसे कई पत्र भेजता रहता है और इन सब का कोई परिणाम तो निकलना नहीं है और इसलिए ये विलम्ब उनके लिए तो अच्छा ही संकेत है.”
गंभीर प्रश्नों के नहीं मिले उत्तर
पत्र 22 मई को हुई पुलिस हिंसा और क्रूरता की घटना के बारे में कुछ प्रासंगिक मुद्दों को उठाता है. पत्र कहता है कि “यह घटना वन या वन भूमि में नहीं बल्कि गांव में हुई थी. पुलिस सुबह सुबह गांव पहुंची, सुखदेव गोंड की झोपड़ी में प्रवेश किया और उसे मारना शुरू कर दिया. पुलिस इतनी सुबह सुबह क्यों पहुंची? पुलिस की रिपोर्ट में ये कहा गया है कि पुलिस, वनों के निवासियों के साथ पेड़ काटने के बारे में चर्चा करने के लिए जंगलों में गई थी. जब गांव वाले जंगल में नहीं बल्कि गांव में थे तो पेड़ो की कटाई का सवाल कहां से आ गया?”
लिलासी गांव के लोगों ने मार्च 2018 में रॉबर्ट्सगंज में ज़िला कलेक्टर के समक्ष वन भूमि पर सामुदायिक वन अधिकारों के तहत अपने दावे प्रस्तुत किए थे. उसके बाद से आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसक घटनाएं और बढ़ गईं. इसपर ये पत्र पूछता है कि,
क्या यह जिला मजिस्ट्रेट की ज़िम्मेदारी नहीं थी कि उसे 18 मई से 22 मई के बीच इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए था. इसके अलावा क्या उसे इसकी उच्च स्तरीय जाँच के लिए कोई ज़रूरी निर्णय नहीं लेने चाहिए थे?”
पत्र ग्रामीणों, वन विभाग के अधिकारियों, गांव में सामंती ताकतों, पुलिस इत्यादि के बीच निरंतर चल रहे संघर्ष पर ध्यान आकर्षित करता है, लिलासी गांव के लोग जिन्हें आठ साल पहले अपने पुरखों की भूमि से जबरन हटाया गया है, उनको आतंकित करने के अधिकारी हाथ धोकर पीछे पड़ गए है.
22 मई की घटना के बाद, मुइरपुर के स्टेशन अधिकारी को हटा दिया गया था. पत्र में सवाल है, “अगर पुलिस अपने कार्यों में सही थी, तो उसे अपने पद से क्यों हटा दिया गया?”
आदिवासी मानवाधिकार रक्षकों के ख़िलाफ़ मनगढ़ंत मामले
आदिवासी मानवाधिकार रक्षकों के ख़िलाफ़ दायर मामलों पर गौर करें तो इनमे कई तरह की तिकड़म और जालसाज़ी साफ़ नज़र आती है. उदाहरण के लिए किस्मतिया और मांजू के नाम एक क्रम में बदल दिए गए थे, ये दिखाने के लिए हिंसा में किस्मतिया शामिल थीं. पत्र में पूछा गया है कि, “अदालत ने नामों के उलट-फेर के इस महत्वपूर्ण मामले में क्यों जांच नहीं की?” रोमा ने पुलिस और राज्य अधिकारियों द्वारा उनके अपराधीकरण पर भी मज़बूती से सवाल उठाए हैं. यह उल्लेखनीय है कि पुलिस द्वारा दायर NHRC के जवाब में एक कथित “आपराधिक इतिहास” का जिक्र है. रोमा पूछती हैं,
अगर मुझे किसी भी मामले में दोषी नहीं ठहराया गया है, तो मुझपर उनके जवाब में आपराधिक इतिहास होने का दोष कैसे थोपा जा सकता है?”
यह पत्र कई झूठे मामलों की तरफ़ भी NHRC का ध्यान आकर्षित करता है, जिसमें रोमा को फंसाया गया है और जानबूझकर निशाना बनाकर उन्हें परेशान किया गया है.
पत्र का एक हिस्सा जेल की विषम परिस्थितियों का हाल बताता है
रोमा को फर्जी आरोपों पर दो बार जेल भेजा गया था. इस तथ्य के बावजूद कि 1989 में मिर्जापुर जिले से अलग कर के सोनभद्र का निर्माण किया जा चुका है, दो साल पहले सोनभद्र जिले के कैदियों को मिर्जापुर जेल में ले जाया गया था, जो सोनभद्र से 80 किलोमीटर की दूरी पर है. वे पूछती हैं कि, “अगर सोनभद्र में जेल पहले से मौजूद है, तो लोगों को नियमित रूप से मिर्जापुर जेल में क्यों ले जाया जाता है?” वो भी तब जब मिर्जापुर की जेल में पहले ही क्षमता से अधिक कैदी बंद हैं.
वे बुनियादी सुविधाओं की कमियों पर भी प्रकाश डालती हैं. उन्होंने बताया कि,
महिलाओं के लिए मिर्जापुर जेल में केवल एक बैरक है. इस बैरक की क्षमता 30 महिलाओं की है जबकि वहां क्षमता से अधिक लगभग 100 महिला कैदियों को रखा गया है. खाने की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है, सोने के लिए कोई उचित जगह नहीं है, बिस्तर भी नहीं दिए जाते. जेल में आने वाले राशन का जेल कर्मचारी दुरूपयोग करते हैं, और महिलाएं जब इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती हैं तो उन्हें पीटा जाता है और उन्हें यातनाएं दी जाती हैं.” उन्होंने इस पत्र में बताया है कि सुकोलो ने एक संदेश भेजा था कि जेल में रोज़ ही उन्हें विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, उन्हें आतंकित करने के लिए आए दिन कोई बखेड़ा खड़ा किया जाता है.”
उन्होंने यह भी बताया कि स्वच्छता से सम्बंधित सुविधाएं यहां न केवल अपर्याप्त हैं, बल्कि स्वास्थ का गंभीर जोखिम भी पैदा करती हैं. वे कहती हैं कि, शौचालयों की पर्याप्त सुविधा न होने के कारण महिला कैदियों को झाड़ियों में जाना है पड़ता है. इन मौजूदा स्थितियों के कारण कई महिलाओं में विभिन्न प्रकार के संक्रमण पाए गए हैं.
जेलों के भीतर की स्थिति अमानवीय है. इस मामले की उच्चस्तरीय जाँच होनी चाहिए. कैदियों और अंडर-ट्रायल लोगों के साथ मानवीय व्यवहार बरता जाना चाहिए. उन्हें एक अच्छा और स्वच्छ वातावरण प्रदान किया जाना चाहिए. सोनभद्र से जुड़े कैदियों को सोनभद्र की जेल में रखा जाना चाहिए.”
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सुप्रीम कोर्ट में दायर पीआईएल के मामले में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ अल्पसंख्यकों को मज़बूती देने वाला फ़ैसला सुनाया था, जिसमें उन्होंने कहा था, भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को सम्मानपूर्वक स्थान दिया गया है. आर्टिकल 21, ये अधिकार देता है कि ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार कोई भी व्यक्ति अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा‘. इस प्रकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता, संविधान के तहत एक अटूट और सम्मानित अधिकार है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत मानव को ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता‘ और गरिमा के साथ जीने का अधिकार प्रदान करने के लिए आयोजित किया गया है और इस प्रकार यह राज्य या उसके कार्यकर्ताओं द्वारा होने वाले उत्पीड़न और हमले के ख़िलाफ़ सुरक्षा की गारंटी के रूप में भी उल्लिखित है.” (न्यायमूर्ति डॉ डी चंद्रचूड़ द्वारा रोमिला थापर बनाम राज्य के मामले में). रोमा ने आग्रह किया है कि लिलासी गांव में हुई हिंसा की उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए. सुकालो गोंड और किस्मतिया गोंड की गिरफ्तारी की भी जांच की जानी चाहिए और उन्हें चार महीने तक अवैध रूप से कैद में रखने के लिए मुआवजा दिया जाना चाहिए.
पूरा पत्र यहां पढ़ा जा सकता है
अनुवाद सौजन्य – अनुज श्रीवास्तव
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