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मरने के बाद भी दलितों की गरिमा पर ऐसी चोट क्यों?

मृतक दलितों के साथ भेदभाव बढ़ने की खबरें लगातार आ रही हैं. आखिर उनकी गरिमा और अधिकार के लिए कानून में क्या प्रावधान हैं. सीजेपी ने कानून के इन प्रावधानों की पड़ताल की है. सीजेपी का सवाल है, क्या दलित लड़की के शव के साथ किए दुर्व्यवहार के दोषी पुलिसकर्मियों को सजा मिलेगी?

हाथरस में एक दलित लड़की के साथ ऊंची जाति के चार ठाकुर युवकों द्वारा बलात्कार की खबर आई. लड़की की हालत खराब होने पर उसे दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में भेज दिया गया. कथित बलात्कार और यातनाओं की वजह से वहां उसकी मौत हो गई. देश इस खबर पर सोया रहा. उसकी नींद तब टूटी जब रातोंरात पुलिस की ओर से कथित तौर पर जबरदस्ती उसकी लाश जलाए जाने की खबरें आने लगी. जैसे-जैसे यह मामला परत दर परत खुलने लगा, वैसे-वैसे और दहला देने वाले ब्योरे आने लगे. लेकिन इससे जुड़ा यह ब्योरा तो सबसे भयावह था. पुलिस इन दावों को खारिज कर रही है. लेकिन इस घटना से संबंधित न्यूज रिपोर्ट्स, सोशल मीडिया पर चश्मदीदों की ओर से अपलोड किए गए वीडियो और खास कर पीड़िता के रिश्तेदारों के बयान कुछ और कह रहे हैं.

पीड़िता के भाई ने न्यूज एजेंसी पीटीआई से कहा कि “पुलिस ने जबरदस्ती लाश को कब्जे में ले लिया. जैसे ही मेरे पिता हाथरस पहुंचे, पुलिस उन्हें तुरंत लेकर श्मशान चली गई.” गांव वालों का दावा है कि वे लड़की के शव को घर लाना चाह रहे थे और उसके बाद उनका दाह-संस्कार के लिए निकलने का इरादा था. लेकिन प्रशासन जल्द से जल्द अंतिम-संस्कार कराने पर आमादा था. गांव वालों ने एंबुलेंस को रोकने की कोशिश की थी. लेकिन आखिरकार अंतिम संस्कार रात में लगभग तीन बजे कर दिया गया. इस दौरान पीड़िता की मां का रोना दिल को झकझोर कर रख देने वाला था. उनका कहना था कि पुलिस ने अंतिम संस्कार से पहले मृत देह को नहलाने और हल्दी लगाने जैसा क्रिया-क्रम भी नहीं करने दिया.

इंडिया टुडे की जर्नलिस्ट तनुश्री पांडे ने एक ट्विटर थ्रेड के जरिये जो वीडियो पोस्ट किए उसमें दिख रहा है कि किस तरह गांव वालों ने एंबुलेंस रोक लिया था, और किस तरह पुलिस शव को जबरदस्ती अंतिम संस्कार के लिए ले जा रही है. और गाड़ी रोकने पर लड़की के रिश्तेदारों पर पुलिस वाले बल प्रयोग कर रहे हैं.

यूपी के सीएम ने अपने ट्विटर अकाउंट के जरिये एक बयान जारी कर मामले की जांच के लिए एक तीन सदस्यीय एसआईटी गठित करने का ऐलान किया है. इस टीम में सरकार के नजदीकी अफसर ही शामिल हैं. टीम में राज्य के गृह सचिव, भगवान स्वरूप, आईजीपी, चंद्र प्रकाश और पीएस की एक सेना नायक, पूनम सदस्य, के तौर पर रखी गई हैं. उन्हें ‘निर्देश’ दिया गया है कि वे सात दिनों में अपनी रिपोर्ट सौंप दें.

हालांकि जांच के तहत इस लड़की को दी गई यातनाओं और उसके साथ रेप की घटना की छानबीन करनी है, लेकिन लड़की के परिवार को उसके अंतिम संस्कार से दूर रखने के लिए पुलिस की ओर से की गई जबरदस्ती और इकतरफा कार्रवाई की जांच का कोई संकेत नहीं दिया गया है. पुलिस की करतूत ने पीड़िता के परिवार से उनका बुनियादी अधिकार और उनकी गरिमा भी छीन ली. मामले के चारों आरोपी गिरफ्तार कर लिए गए हैं. सीएम ने उनके खिलाफ फास्ट ट्रैक अदालत में मामला चलाने को कहा है.

हाथरस के एक गांव की 19 साल की यह लड़की 14 सितंबर को इस जघन्य अपराध की शिकार बनी. गांव के ही चार ठाकुर लड़कों ने उसके साथ कथित गैंग रेप किया. पीड़िता को पहले अलीगढ़ के जे एन मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया लेकिन हालत बिगड़ने पर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल भेज दिया गया. 29 सितंबर को उसकी मौत हो गई. इस सामूहिक बलात्कार को बेहद नृशंस तरीके अंजाम दिया गया.

दलितों के अंतिम संस्कार का मुद्दा

यह पहला मामला नहीं है जब किसी दलित के अंतिम संस्कार में इस तरह, गैरकानूनी तरीके से दखलंदाजी की गई. (दलितों की लाश दफनाने या अंतिम संस्कार के कई अन्य मामलों में भी ऐसा हुआ है). जुलाई में यूपी के ही इटावा जिले में गर्भाशय के संक्रमण से एक दलित महिला की मौत हो गई थी. लेकिन बाहुबली ठाकुर समुदाय के लोगों के सदस्यों ने उसके परिवार के सदस्य को मृतक की लाश को जबरदस्ती चिता से उतारने पर मजबूर कर दिया. महिला के परिवार को उसका अंतिम संस्कार उस श्मशान में नहीं करने दिया गया, जो कथित तौर पर ऊंची जातियों के लिए था.

मार्च में कर्नाटक के दावणगेरे तालुक के पुट्टागनल गांव से खबर आई थी कि दलित समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय की कब्रगाहों में लाशें दफनाने से रोक दिया गया. उन्हें सड़क के किनारे कब्र खोद कर लाशों को दफनाना पड़ा. ‘डीएनए’ अखबार में 2011 में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के 43,722 गांवों में से 72.13 फीसदी में दलितों की कब्रगाह की जमीनों पर ऊंची जाति के लोगों ने कब्जा कर लिया है.

‘द न्यूज मिनट’ की 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक केरल में इस तरह की समस्या पर पत्रकार सानु कुमिल ने एक डॉक्यूमेंटरी ‘सिक्स फीट अंडर’ में रोशनी डाली थी. सानु का कहना था कि सार्वजनिक कब्रगाहों में जगह न होने की वजह से लोगों को अपने परिजनों की मौत पर उन्हें अपनी जमीन पर दफनाना पड़ रहा था. जिनके पास अपनी जमीन नहीं थी, उन्हें अपने घरों में कब्र खोद कर अपने परिजनों की देह को दफनाना पड़ रहा था.

सानु ने गिरिजा की स्टोरी दिखाई दी थी, जिन्हें अपनी बेटियों को दफनाना पड़ा था. साजी को अपनी मौसी के शव को उनके किचन में ही दफनाना पड़ा था. लेखा के चाचा ने आत्महत्या कर ली थी और उन्हें उसी घर के साथ जला दिया गया (अंतिम संस्कार) था, जिसमें वे रहते थे.

इस साल जनवरी में ‘न्यू इंडियन एक्सप्रेस’ ने खबर छापी थी कि तिरुपुर जिले के वाडाचिनारीपालयम गांव के जिलाधिकारी के सामने दलित समुदाय के लोग इस बात की शिकायत करने पहुंचे थे कि पिछले 50 साल से उन्हें अपने गांव की कब्रगाह का इस्तेमाल नहीं करने दिया जा रहा है. वे लोग सड़क के किनारे की जगहों का इस्तेमाल अपने परिजनों के शवों को दफनाने के लिए कर रहे हैं.

नवंबर, 2018 में ‘न्यूज 18’ की रिपोर्ट में कहा गया था कि कोयबंटूर में विधि गांव के दलितों को अपने परिजनों की शव यात्रा के दौरान कचरे के डंपयार्ड और सीवरों से होकर गुजरना पड़ रहा था क्योंकि ऊंची जाति के लोग उन्हें अपने घरों के सामने से होकर जाने वाले रास्ते का इस्तेमाल नहीं करने देते थे.

दलित छात्र रोहित वेमुला की खुदकुशी को कौन भूल सकता है. इस घटना के बाद छिड़े इस आंदोलन को ‘इंस्टीट्यूशनल मर्डर’ कहा गया था. वेमुला और उनके दूसरे दलित स्कॉलर साथियों को एबीवीपी के एक छात्र नेता पर कथित हमले के आरोप में कॉलेज प्रशासन ने निलंबित कर दिया था. जबकि प्रोक्टोरियल बोर्ड की जांच में उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया गया था. इन लोगों को कॉलेज के बाहर टेंट लगा कर रहना पड़ा था. आखिरकार लगातार अपमानित किए जा रहे रोहित वेमुला ने अपनी जान ले ली.

कहा जाता है कि वेमुला के शव को चुपचाप जला दिया गया, जबकि इसे दफनाया जाना था. सिर्फ उनकी मां वहां मौजूद थीं. रोहित के सहयोगी हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में जातिगत भेदभाव के खिलाफ छात्रों के संघर्ष में शामिल उनके साथी सुशील कुमार की ओर से सोशल मीडिया पर जारी किए सबूतों से इसका खुलासा हुआ था.

कानून किसके साथ खड़ा है?

हाथरस में लड़की के शव को जबरदस्ती जलाने के बाद से इस बात पर बहस तेज हो गई है, कि किसी मरे हुए शख्स की सुरक्षा कानून कैसे करता है? दलितों या अनुसूचित जातियों के मामले में कानून अपनी भूमिका कैसे निभाता है?

दलितों पर जब अत्याचार की बात आती है तो हम एससी-एसटी एक्ट (अत्याचार निरोधक) 1989 की ओर देखते हैं. चूंकि हम गरिमा के साथ दलितों के अंतिम संस्कार का सवाल उठा रहे हैं इसलिए इस कानून के कुछ प्रावधानों पर प्रकाश डालना बेहद जरूरी है : –

सेक्शन 3 (1) कोई भी व्यक्ति जो अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग का नहीं है और अगर वह

( r) अनुसूचित जाति या जनजाति वर्ग के किसी व्यक्ति को सार्वजनिक तौर पर जान-बूझ कर अपमानित करता है, या अपमानित करने के मकसद से जबरदस्ती करता है

(y) अनुसूचित जाति या जनजाति वर्ग के किसी व्यक्ति के किसी धार्मिक स्थल पर जाने के पारंपरिक अधिकार से वंचित करता है, उस स्थल तक जाने के उसके अधिकार में बाधा पहुंचाता है, जहां अन्य लोगों या समाज के दूसरे वर्गों के लोगों को जाने का अधिकार है.

(za) इनमें से किसी भी तरीके से अनुसूचित जाति-जनजाति के लोगों को बाधा पहुंचाने या रोकने की कोशिश करता है

 

ऊपर लिखे कोई भी अपराधिक काम करने पर छह महीने से कम की सजा नहीं होगी. और इसे जुर्माने के साथ पांच साल तक के लिए बढ़ाया भी जा सकता है.

 

3(2) अनुसूचित जाति या जनजाति समुदाय के बाहर का कोई व्यक्ति अगर

(vii) लोकसेवक के तौर पर इस सेक्शन के तहत कोई अपराध करता है तो उसे कम से कम एक साल की सजा होगी, लेकिन इस अपराध के लिए निर्धारित सजा की अवधि बढ़ाई भी जा सकती है.

आगे दोषी पाए जाने पर इस तरह के अपराध को अंजाम देने वालों को कम से कम एक साल की सजा दी जा सकती है. सेक्शन 15A के तहत पीड़ित और गवाहों के अधिकार निर्धारित किए गए हैं. उपधारा 2 में कहा गया है कि उसके साथ गरिमा, सम्मान और निष्पक्ष व्यवहार किया जाएगा. इस कानून की धारा 11 (d) के तहत यह जिम्मेदारी राज्य की है, वह मौत के मामले में यह सुनिश्चित करे कि मृतक की गरिमा बरकरार रहे.

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में अत्याचार से पीड़ित लोगों को राहत देने के लिए प्रावधान तो हैं ही, इन मामलों में भारतीय दंड संहिता के प्रावधान भी लागू होते हैं. मृतक के खिलाफ किए गए अपराध के मामले में भारतीय दंड संहिता के तहत भी सजा दी जा सकती है-

भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा में कहा गया है कि मृतक की संपत्ति को हड़प लेना अपराध है. इसके अलावा धारा 499 में मृतक को बदनाम करने और उसके खिलाफ अपमानजनक बातें लिखने या बोलने के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाया जा सकता है.

धारा 503 में मृतक की प्रतिष्ठा के खिलाफ कदम उठा कर उसके किसी नजदीकी व्यक्ति की प्रतिष्ठा धूमिल करने पर सजा का प्रावधान है. इसे अपराध माना गया है.

आईपीसी की धारा 297 में कहा गया है कोई व्यक्ति अगर किसी कब्रिस्तान में घुस कर किसी शव के साथ गरिमाहीन व्यवहार करता है, या वहां अंतिम संस्कार के काम बाधा पहुंचाता है, या फिर वहां इस काम में जुटे लोगों के लिए दिक्कतें पैदा करता है, तो उसे निर्धारत सजा दी जाएगी, जो जुर्माने के साथ एक साल तक हो सकती है या फिर दोनों सजाएं मिल सकती हैं.

इस संबंध में अंतराष्ट्रीय कानून भी हैं. मानवाधिकार पर संयुक्त राष्ट्र आयोग ने 2005 में एक प्रस्ताव लागू किया, जिसमें मानव शवों के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार के महत्व को रेखांकित किया गया गया है. इसमें उनके सही रख-रखाव उनके गरिमापूर्ण अंतिम संस्कार और परिवार की जरूरत के मुताबिक उसका सम्मान सुनिश्चित करने से जुड़ा मुद्दा शामिल है.

लिहाजा अब यह कहने की जरूरत नहीं है कि मृतक के साथ इस तरह का व्यवहार (जैसा कि हाथरस में कथित तौर पर बलात्कार की शिकार लड़की के शव के साथ हुआ) संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) , अनुच्छेद 15 (भेदभाव की रोकथाम) अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता निवारण) और अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) का सीधा उल्लंघन है. इसलिए इस तरह के मामले में अदालत की ओर से सीधे हस्तक्षेप करने की जरूरत है, ताकि पिछले कुछ साल में इस तरह के बढ़ते मामलों पर लगाम लग सके. ऊपर जिन घटनाओं का जिक्र किया गया है, उनसे साफ है कि दलितों के साथ भेदभाव के मामले बढ़ते जा रह हैं.

यह हकीकत है कि भारतीय समाज में दलित सबसे हाशिये और भेदभाव के शिकार लोग हैं. लेकिन सवाल यह कि क्या कानून तोड़ने वाले पुलिसकर्मियों को सजा मिलेगी?

किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी देह के साथ गरिमापूर्ण ढंग से व्यवहार को लेकर अदालतों ने कई फैसले दिए हैं. यहां उनमें से कुछ का उदाहरण देना जरूरी है-

पंडित परमानंद बनाम भारतीय संघ (1995 (3) SCC 248) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा-

“हम याचिकादाता की इस दलील से सहमत हैं कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा और उचित व्यवहार न सिर्फ जीवित व्यक्ति बल्कि मृत्यु के बाद उसकी देह के लिए भी है.”

आश्रय अधिकार अभियान बनाम भारतीय संघ (AIR 2002 SC 554) में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात का समर्थन किया कि बेघर मृत व्यक्ति का अधिकार है कि उसके धार्मिक विश्वास साथ उसका गरिमापूर्ण अंतिम संस्कार हो. यह राज्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे लोगों का गरिमापूर्ण अंतिम संस्कार सुनिश्चित करे.

एस सेतु राजा बनाम मुख्य सचिव [2007 (5) MLJ 404] मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस तरह जीवित व्यक्ति के संदर्भ में हम अपनी परंपराओं और संस्कृति का पालन करते हैं उसके साथ ऐसा किए जाने की उम्मीद करते हैं उसी तरह मृत व्यक्ति के साथ भी व्यवहार होना चाहिए.”

अगस्त, 2019 में मद्रास हाई कोर्ट ने एक ऐसी खबर (न्यूज रिपोर्ट) पर संज्ञान लिया, जिसके मुताबिक दलित समुदाय के लोगों को श्मशान का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था. मजबूर होकर उन्हें अपने समुदाय के एक व्यक्ति के शव को 20 फीट ऊंचे ब्रिज से नीचे पालार नदी में गिराना पड़ा था. इस मामले में डिवीजनल बेंच के जस्टिस एस मणिकुमार और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद ने वेल्लोर के कलक्टर और वनियामबाडी के तहसीलदार से यह बताने को कहा था कि जब सब हिंदू हैं तो किसी एक अलग जगह को दलितों के अंतिम संस्कार के लिए क्यों निर्धारित किया गया था.

अदालतों की ओर से दिए गए फैसलों को मुताबिक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या जरूरी है, और इसे मृत व्यक्ति के मामले में भी लागू करना भी उतना ही जारी है. अनुच्छेद 21 के तहत मिले अधिकार इतने व्यापक हैं कि ये मृतक व्यक्ति के लिए भी गरिमा सुनिश्चित करता है. यह सिर्फ उस व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि मृत्यु के बाद उसके परिजनों के लिए गरिमा सुनिश्चित करता है. भारतीय दंड संहिता की धारा 503 (ऊपर इसका जिक्र किया गया है) में जिस तरह किसी जीवित व्यक्ति के सम्मान या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने पर सजा का प्रावधान किया है, ठीक यही चीज मृतक और उसके रिश्तेदारों के मामले में भी लागू होती है.

*Sections and subsections of the laws mentioned are in English to avoid confusion arising out of language related numbering and lettering conventions.

 

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